Sunday, December 04, 2005

कुछ हायकू मेरे भी

आजकल हायकू का मौसम सा आया हुआ है। सभी हायकू में अपने आपको अभिव्यक्त कर रहे हैं।
हमारा भी यह पहला प्रयास है हायकू लेखन में;

हुई बावरी
जब तुम मिले तो
खिला है मन

कच्चे धागे से
प्रीत के बन्धन ये
कितने पक्के

छिपे हो कहां
ढूंढू तुम्हें हर सू
अंखिया मीचे

देखूं अब क्या
बस गई मन में
तस्वीर तेरी

तेरी लगन
राधा सी प्रीत मेरी
कान्हा तुम हो

दहके गाल
रंग हुआ चम्पई
एक नज़र

तुम आ जाओ
लगता नहीं दिल
कैसे कहें ये

कहां मिलेगा
धरती अम्बर सा
साथ हमारा

तुमने छुआ
अंखिया झुक गई
छुई मुई सी

मन बसंती
गाने लगा मल्हार
बादल छाये

रतियां सूनी
तुम गये जबसे
दिन बिराना

Thursday, December 01, 2005

हम फिल्में क्यों देखते हैं?



पिछले कई दिन से सोंच रहे हैं कि इस बार अनुगूंज पर हम भी अपनी पोस्ट लिख ही दें, पर वक्त ही नहीं मिल पा रहा था। आज शब्दांजलि का दिसम्बर अंक प्रकाशित करके फुरसत हुये तो सोंचा इस काम को आज कर ही दें। हर माह शब्दांजलि के प्रकाशन के बाद बहुत हल्का-हल्का सा महसूस होता है। एक बड़ी जिम्मेदारी सी पूरी हो जाती है।
हां तो बात हो रही थी अनुगूंज की, जिसका कि इस बार शीर्षक है - "हम फिल्में क्यों देखते हैं"
फिल्में तो सभी देखते हैं- कोई सोंच समझ कर कोई बिना सोंचे समझे। वैसे कहा जाता है कि फिल्में समाज का आईना होती हैं। पर शायद हमारे हिसाब से फिल्में सपनों का आईनां होती हैं। आम ज़िन्दगी में जो कुछ हमें हासिल नहीं होता, वो हम फिल्मों में देख कर खुश हो लेते हैं।
लेकिन आजकल हिन्दी फिल्मों का रुख पता नहीं किस ओर जा रहा है। कम ही फिल्में देखने लायक रह गई हैं। हमें ये कहते हुये थोड़ा संकोच हो रहा है कि हम हिन्दी फिल्मों से ज्यादा अंग्रेजी फिल्में देखते हैं। अंग्रेजी फिल्मों में विविधता होती है, आप अपनी पसंद और रुचि के अनुरूप फिल्म चुन सकते हैं।
फिर भी कुछ पुरानी हिन्दी फिल्मों की बात अलग थी। हमारी पहली मूवी थियेटर में "क्रान्ति" थी जो पापा ने हमे हाइस्कूल में फर्स्ट डिवीज़न आने पर दिखाई थी। उसके बाद से थियेटर में बस गिनी चुनी मूवीज़ ही देखीं। ज्यादातर टीवी पर दिखाई जाने वाली फिल्में ही देखते हैं। अब क्यों देखते हैं, इसके कई कारण हैं। कई बार कुछ करने को नहीं होता, तो फिल्म देख लेते हैं। कई बार कुछ करने का मन नहीं होता तो फिल्म देखते हैं। हर बार एक फिल्म देख कर सोंचते हैं बेकार देखी, इससे अच्छा तो कोई किताब पढ लेते। पर अगली बार फिर कोई फिल्म देखने बैठ जाते हैं।

Wednesday, November 30, 2005

ख्वाब

कुछ न कहो बस ख्वाब का क्या है
ख्वाब सुनहरे होते हैं।
कितने सारे पागल प्रेमी,
मिल के इन्हें सजोंते हैं।

कांच के नाजुक ताजमहल से ,
रखना इन्हें सम्भल के तुम;
एक ठेस भी गर लग जाय
किरचें दिल में चुभोते हैं।

किसी को मंज़िल तक पहुंचायें
किसी के राह में बिखर गये,
कहीं-कहीं पर धूमिल-धूमिल
कहीं रुपहले होते हैं।

ख्वाब हैं आखिर टूट जायं तो,
नये ख्वाब तुम बुन लेना;
माला गर टूट जाय तो
मोती नये पिरोते हैं।

Friday, November 18, 2005

यादें बचपन की.....

आज ऎसे ही सोंचा कि अपने बचपन को याद किया जाय। रोज़ ही सोंचते रहते हैं कुछ लिखने के लिये पर वक्त नहीं निकाल पाते, यूं लिखने को तो बहुत कुछ है। जब लिखना शुरु कर दिया है तो बचपन से खूबसूरत और क्या होगा। वैसे पुराने दिनों की याद करने बैठो तो ज्यादा कुछ याद नहीं आता, बस कुछ धुंधली, कुछ स्पष्ट थोड़ी सी यादें है। हमारी याददाश्त ज्यादा तेज नहीं है, कुछ विशेष बातें ही याद रह जाती हैं।
हमारा पहला स्कूल था भारती मान्टेसरी स्कूल! हमें याद है हम जब मम्मी के साथ वहां एड्मीशन लेने गये थे। बहुत ही ज्यादा उत्साहित थे हम स्कूल जाने के लिये। पर अगले ही दिन जब बिना मम्मी के अकेले स्कूल जाना पड़ा तो रोना शुरु हो गया था। ऎसे ही बस स्कूल जाते जाते स्कूल अच्छा लगने लगा। और जब पढना सीखा तो एकदम ही किताबी कीड़े बन गये। हर वक्त कुछ न कुछ पढते रहना हमारा प्रिय शौक बन गया। और जब हम कुछ रोचक पढ रहे होते थे तो हमें आस पास के बारे में कुछ पता नहीं होता था और न ही कुछ सुनाई पड़ता था। उन्हीं दिनों की एक घटना जब हम तीसरी क्लास में पढते थे , अब भी याद है, उसका निशान मन के साथ हांथ पर अब भी है। हुआ यूं कि हम क्लास में बैठे कोई किताब बहुत तल्लीनता से पढ रहे थे। हमारी एक सह्पाठी दीपशिखा (नाम अब भी याद है) ने अपनी पेंसिल ब्लेड से बहुत ही अच्छे से छीली। पेंसिल की नोक बहुत नुकीली और बड़ी हो गई थी और दीपशिखा हमें ये दिखाना चाहती थी, हमने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया,जब उसने कई बार टोंका तो हमने उसकी पेंसिल तोड़ दी। उसे इस पर इतना गुस्सा आया कि उसने ब्लेड हमारे हांथ पर चला दिया। इतना खून निकला कि आस पास के सब लोग डर गये, पर हमने टीचर से शिकायत नहीं की क्योंकि हमें पता था कि गलती हमारी भी है। हालांकि बाद में टीचर को पता चल गया और परिणाम स्वरूप सभी के ब्लेड जब्त कर लिये गये। चौथी क्लास तक हम उस स्कूल में पढे। उसके बाद पिताश्री ने हमारा नाम इंग्लिश मीडीयम से सीधे संस्कृत मीडीयम, यानी की सरस्वती शिशु मन्दिर में करा दिया।
सरस्वती शिशु मन्दिर की कुछ बहुत प्यारी यादें अब भी जहन में हैं। वहां का माहौल हमारे पिछले स्कूल से बिल्कुल अलग था, जिससे शुरु शुरु में थोड़ी परेशानी हुई पर बाद में हम माहौल के मुताबिक ढल गये। शिशु मन्दिर में प्रतिदिन की शुरुवात प्रार्थना, एक समारोह की तरह होती थी। सुबह पूरे एक घन्टा मैदान में बैठना होता था। प्रातःस्मरण से शुरुवात होकर गीता के श्लोक, रामायण की चौपाईयां, विभिन्न गीत और सरस्वती वन्दना और भी न जाने क्या क्या होता था। हम वन्दना प्रमुख थे और सुबह की प्रार्थना सुचारु रूप से कराना हमारा काम था। उन्ही दिनों कविताओं से पहली पहचान हुई। हम लोगों को प्रतिदिन प्रार्थना के समय एक गीत भी गवाया जाता था। उनमें से दो कवितायें अभी भी याद हैं-

उगा सूर्य कैसा कहो मुक्ति का ये,
उजाला करोड़ो घरों में न पहुंचा।
खुला पिंजरा है मगर रक्त अब भी,
थके पंछियों के परों में न पहुंचा।

और

जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाय।

हमारे एक आचार्य जी (शिशु मन्दिर में टीचर को आचार्य कहकर बुलाते हैं) थे, जिनका नाम था दिनेश चन्द्र अग्निहोत्री। वो कविता लिखा करते थे और हम लोगों को सुनाया करते थे। तब समझ में कुछ ज्यादा नहीं आता था। पर अच्छा लगता था उन्हें सुनना।
उन्हीं दिनों विद्यालय के वार्षिकोत्सव का आयोजन हुआ। जिसमें विभिन्न कार्यक्रमों में हमने बढ-चढ कर हिस्सा लिया। यहां दिनेश आचार्य जी ने एक कवि सम्मेलन का भी आयोजन कराया। जिसमें हमें महादेवी वर्मा का किरदार मिला। तब पता नहीं था कि महादेवी वर्मा कितनी बड़ी कवियत्री हैं, बस अच्छा लगता था कि हमें इतना महत्वपूर्ण रोल मिला है। तभी महादेवी जी की पहली कविता पढी जो हमें स्टेज पर सुनानी थी-

वे मुस्काते फूल नहीं
जिनको आता है मुरझाना।
वे तारों के दीप नहीं,
जिनको भाता है बुझ जाना.....

और ये अब भी हमारी पसंदीदा कविता है।
महादेवी वर्मा का रोल करने से एक बात और ये हुई की हमने कविता करना शुरु कर दिया। घर में और स्कूल में सब हमें कवियत्री कहकर चिढाते थे। और हम चिढते भी बहुत थे। पता नहीं क्यों ऎसा लगा कि हमें कविता करनी चाहिये। दो अक्टूबर आने वाली थी तो सोंचा गांधी जी के ऊपर कविता लिखना अच्छा रहेगा। और अपनी पहली कविता की कुछ पंक्तियां अब भी याद हैं-
भारत की जनता को बापू जी ने संदेश दिया
पढो लिखो और चरखा कातो यही है हमको लक्ष्य दिया।
पर भारत की जनता ने इस सबको क्या अंजाम दिया,
फैली चारों ओर अव्यवस्था आतंक का बोलबाला है,
जनता नही सुधर पाई है चरखे को अब छोड़ दिया।

और भी काफी लम्बी कविता थी पर अब याद नहीं। अब इसे याद करके हंसी आती है। पर उन दिनों बहुत गर्व होता था कि हमने कविता लिखी है। इसे बार बार पढा करते थे। उन्ही दिनों हमारे यहां बुन्देल्खन्ड विश्ववविद्यालय के वाइस चांसलर डा. बी.बी.लाल आये। पापा ने उन्हें बता दिया कि हम कविता लिखते हैं। तो उन्होंने हमारी क्लास ले ली। बोले अपनी कोई कविता दिखाओ। हमने उसी दिन इन्द्र धनुष को देखकर एक कविता लिखी थी -
सत्ताइस तारीख की शाम मेरे मन में आज भी है
जब निकला था इन्द्रधनुष आसमान में...
उन्होंने इस कविता को पढकर हमें ढेर सारे उपदेश दे डाले, कि कविता लिखना है तो अभी से सीखना होगा, कविता में लय होनी चाहिये, वगैरह वगैरह...। पता नहीं क्यों हमें उनके उपदेश अच्छे नहीं लगे और हमने कविता लिखना कुछ सालों के लिये स्थगित कर दिया। आखिर हम पांचवी क्लास में थे और भी बहुत काम थे करने को।

शिशु मन्दिर में ही एक और गीत सीखा जिसे हमारे हिसाब से राष्ट्र गान की संज्ञा मिलनी चाहिये। इसे याद करने की कोशिश कर रहे हैं पर ठीक से याद नहीं आ रहा।
आप लोगों में से किसी को याद हो तो बताइये।

सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा।
हम बुलबुलें हैं इसकी ये गुलसितां हमारा।

मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना।
हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्तां हमारा।

गोदी में खेलती हैं जिसकी हजारों नदियां।
गुलशन है जिसके दम से ----।

पर्वत वो सबसे ऊंचा हम साया आसमां का,
---


ये गीत शायद इकबाल का है। हमें ठीक से नहीं पता। आपको पता हो तो बतायें।

Wednesday, November 16, 2005

मौसम की पहली बर्फ....

आखिर सर्दियां आ ही गईं। इस बार मौसम नये नये रंग दिखा रहा है। नवम्बर में भी कभी कभी गर्मी का सा अहसास हो रहा था। पतझड़ भी कितनी देर से आया इस बार, और कुछ रंग-बिरंगे पत्ते तो अभी भी पेड़ों पर बाकी हैं। और आज सुबह उठ कर खिड़की से बाहर देखा तो बर्फ पड़ रही थी। तापमान देखा तो 25 डिग्री फारेन्हाइट; शून्य से भी कुछ डिग्री नीचे। हां इसे भारी हिम्पात तो नहीं कह सकते, पर बर्फ तो है ही। नया-नया सब कुछ कितना अच्छा लगता है। सुबह कान्ती को स्कूल छोड़ने गये तो सब कुछ एक हल्की सी धुंध में ढका सा था। बर्फ रुई के सफेद फाहों सी उड़ती हुई विन्ड स्क्रीन पर आकर टकरा रही थी और एक पल में ही पिघल कर बही जा रही थी। जगजीत सिंह की गज़लें सुनते हुये बाहर के मौसम का मजा लेना कितना सुखद लग रहा था। मौसम की ये पहली बर्फ इतनी अच्छी लग रही है, पर कुछ ही दिन में इस से ऊब जायेंगे। जब चारों तरफ बस सफेदी का साम्राज्य सा छा जायेगा, तो यही बर्फ दुश्मन सी लगेगी। और हम फिर से बेसब्री से इंतज़ार शुरु कर देंगे- गर्मियों का।

यही तो है जीवन- जो पास नहीं है हमेशा मन वही मांगता है, और जो पास है उस की कोई कद्र नहीं।

एक तस्वीर पिछले साल की बर्फ से


Friday, November 11, 2005

एक छोटी सी प्रेम कहानी


प्रतीक्षा के पल
होते तो हैं मुश्किल; पर
इन्हीं में छुपी होती है-
आस जीवन की!

समर्पण करूं
खुद को तुम पर;
इससे बढकर और क्या चाहूं!
तुम मेरे बन जाओ तो;
और मैं 'उससे' क्या मांगू?

मिलन के ये दो पल प्रिये!
इंतज़ार था सदी भर का।
खुद को खोकर तुझमें
बनी हूं आज मैं अभिसारिका!


दो मन मिले,
दो तन मिले,
हम बने जीवन रथ के दो पहिये।
'मैं' को खोकर 'हम' ने पाया,
सुख तृप्ति का
परिणति यही तो होनी थी

Tuesday, November 01, 2005

एक दिया....




राह जब तम से घिरें सब;
और न सूझे हांथ भी जब;
निराशा से तुम घिर न जाना।
एक दिया तब तुम जलाना।

अंधियारा कितना प्रबल हो,
हृदय कितना ही विकल हो,
प्रात की पहली किरण से,
रात को है ढल ही जाना।

भावना के सुर सजाकर,
कृष्ण सी बंसी बजाकर,
प्रीत भर दे जो हृदयों में,
गीत ऎसा गुनगुनाना।

सभी को दीपावली की शुभकामनायें!!!

Tuesday, October 11, 2005

साथ....



रेत पर लिखा था तेरा नाम मेरे नाम के साथ,
खुशनसीब थे कि हो गया ये उम्र भर का साथ।

खुशबू की तरह तुमको रूह में उतारा है,
जाओ कहीं भी लेकिन रहता है साया साथ।

दुआओं में था असर हम एक दूजे को मिल गये,
लोगों की भी नज़र में है तेरा और मेरा साथ।

खुशी की थी इम्तिहां कि आंख में पानी सा भर गया,
गम और खुशी तो बस ऎसे ही चलते हैं साथ साथ।

Friday, October 07, 2005

हिन्दी के प्रमुख जालघर

हिन्दी के कुछ प्रमुख जालघरों का संकलन

कुछ हिन्दी पत्र पत्रिकायें

अभिव्यक्ति
अनुभूति
हिन्दी नेस्ट
काव्यालय
निरन्तर
साहित्य कुन्ज
अक्षर ग्राम
तदभव
कृत्या
उदगम
वागार्थ
कलायन
रचनाकार
हंस
वेब दुनिया
हिंदिनी
विश्वजाल पर कुछ हिन्दी समाचार पत्र
अमर उजाला
दैनिक जागरण
हिन्दी मिलाप
नवभारत
प्रभात खबर
राजस्थान पत्रिका
राष्ट्रीय सहारा
डायचे वेले
दैनिक भास्कर
हरी भूमि
नई दुनिया
नव भारत टाइम्स
रांची एक्स्प्रेस
वायस आफ अमेरिका
चाइना रेडियो इन्टरनेशनल (हिन्दी सेवा)
कुछ सुरुचिपूर्ण भारतीय जालघर
इन्डियन हाउसहोल्ड
सिफी फूड
म्यूज़िक इन्डिया आन्लाइन
आल इन्डिया रेडियो

Monday, September 19, 2005

दो मुक्तक

रोज वही सूरज का ढलना,
नैनों में दीपक का जलना,
सदियों सी इक शाम बिताकर;
रात गये फिर उनसे मिलना।

********************************

राह देखते तेरी,
खुद राह हो गये तेरी,
इस राह की तकदीर में;
कभी तो हो अगवानी तेरी।

Tuesday, September 13, 2005

बहाना...........

बहाना ढूंढ रहे थे सुबह से रोने का ;
तका जो फलक तो झङी लग के बरसात हुई।

इक अजनबी सी लङकी मेरे अन्दर रहा करती है;
देखा जो आज आईना तो उस से मुलाकात हुई।

Saturday, September 10, 2005

बारिश में

याद बहुत आई
इस बार भी
घर की बारिश में
मन को मनाया तो बहुत
पर भर आईं
आखिर अंखियां बारिश में ।
सखियां, झूले;
कागज़ की नावें,
एक साथ ही जैसे
चले आये यादों में,
नहीं रुक पाया बस
भर आया मन
इस बार भी बारिश में।
मेंहदी भी नहीं रचती
हथेलियों में यहां जैसे,
चूङियां भी कलाइयों में,
सजती हैं कहां वैसे
बस बादल ही
बरसते हैं हरबार
यहां बारिश में।
क्या कहें?
होता है यहां
हर साल यही बारिश में।

Tuesday, September 06, 2005

गीत

कुछ गीत बन रहे हैं, मेरे मन की उलझनों में।
कुछ साज़ बज रहे हैं, मेरे मन की सरगमों मे॥

कुछ है जो कहा नहीं जाता, अपनी ही ज़ुबां से,
कुछ बात छिपी हुई है, मेरे मन की चिलमनों में।

अनन्त से क्षिति तक, छाई है एक खुमारी,
मय सी बरस रही है, मेघों की गरजनों में।

यामिनी बन गई है, एक अनकही सी कहानी,
ऊषा खो गई है, सन्ध्या की धङकनों में।

Friday, September 02, 2005

तुझसे पहचान

तुझसे हुई है पहचान जबसे
खुद से अन्जान हो गई हूं मैं
खुद से मिल के कोई थम सा जाय
ऎसे हैरान हो गई हूं मैं

तेरे नाम से ही बस दिल धङकने लगे,
तुझसे रूबरु हूं कभी तो लब कांपे
एक मुस्कुराहट सी चस्पाँ है हर वक्त
कभी हंसी के अपनी कानों में कहकहे गूंजे
कभी उदासी के आलम में खुद को डूबा देखूं
कितनी कमजोर हो गयी हूं मैं

मेरी आवाज़ मेरा साथ न दे,
मेरे हांथों में अपना हांथ न दे
सारे अल्फ़ाज़ लङखङा जायें,
जिस्मों जां जैसे थरथरा जायें
कौन समझेगा मेरी हालत को
मेरे जज़्बों को मेरी चाहत को
खुद किसी को बता नहीं सकती
तुझसे मानूस हो नहीं पाती
दूर चाहूं तो जा नहीं सकती
हर सू तुझे महसूस करती हूं मैं

वक्त की शाख पर नई कोंपल
मौसमे-गुल ने कुछ ऎसे उगाई है
जैसे जाङे की सर्द रातों में
कोई अहसास हौले से नरमाई दे
और कोई लङकी अपने दहके हुये कानों को
फ़कत अपने हांथो से छुपाना चाहे
तेरी खामोशी और बातें सुनके
हो गई हूं मैं भी एक आम सी लङकी
जो आंखे मूंदे सपनों का इंतज़ार करती है
क्यों जागी रातों को सपने देखती हूं मैं

Tuesday, August 23, 2005

एक नज़्म


कई दिन से है कलम बंद
आज कुछ तो लिखना है।
अक्षरों की राह होते हुये
आज कुछ तो बहकना है।
चलो ढूंढे मन की सिलवटों में...
कहीं तो छिपी बैठी होगी
कोई कविता-
या कोई अधूरी सी नज़्म;
लिख दें उसे फिर से
मोतियों सी लिखावट में;
दें उसे कोई नये मायने।
नहीं तो चलो-
खारे पानी में ही डुबो दें
आज कलम
रच दें दर्द का कोई नया नग्मा;
ज़िन्दगी की किताब में
कुछ नये सफे जोङें।
दें मन के गुबार को
इक नई भाषा;
तोङ दें इस पसरे हुये मौन को
कई दिन से है
कलम बंद
आज कुछ तो लिख दें........

Wednesday, July 13, 2005

मन तितली

तितली बन मन पंख पसारे।
बिखरे रंग धनक के सारे।

शोख हवा से लेकर खुशबू;
लिख दी पाती नाम तुम्हारे।

हुई आज मैं अपने पिय की;
टंक गये आंचल चांद-सितारे।

बाबुल अंगना छूटा अब तो;
चली आज मैं पिया के द्वारे।

प्यार की पहली बारिश में ही;
डूब गया मन संग तुम्हारे।

भर नज़रों से तुमने देखा,
झुक गईं अंखियाँ लाज के मारे।

अम्बर से कुछ स्याही लेकर;
लिक्खा खुद को नाम तुम्हारे।

तुमसे मिलना बातें करना;
पल में बीते लम्हे सारे।

संग तुम्हारे निकले घर से;
बढ के कोई नज़र उतारे।

Monday, July 11, 2005

कहना है......

कहना है बहुत कुछ उन्हें भी लेकिन,
जाने क्यों इज़हार नहीं करते;
दिल में एक चुभन उन्हें भी है,
पर जाने क्यों अहसाह नहीं करते।

अक्सर आंखों मॆं उनकी,
कुछ सवाल लहराते देखे हैं।
अक्सर बातों में उनकी
कुछ अधूरे प्रश्न से देखे हैं;
बातें हैं दिल में लाखों
पर जाने क्यों बात नहीं करते।

कहते हैं करार उन्हें है,
पर बेकरार से दिखते हैं।
देख कर मेरी आंखे भीगी ,
कुछ बेज़ार से लगते हैं।
है कोई नहीं मेरा उनके सिवा
जाने क्यों स्वीकार नहीं करते।

अंदाज उन्हें है प्यार का मेरे,
फिर क्यूं इम्तहान सा लेते हैं
हर एक खुशी देकर जैसे
कोई अहसान सा कर देते हैं
प्यार उन्हें भी हमसे है
जाने क्यों स्वीकार नहीं करते।

Friday, July 08, 2005

एक गज़ल

तेरी एक नज़र ने आज मुझे इस तरह सजाया है।
मिरे आगे आज तो कुछ चांद भी शरमाया है।

मांग मेरी मोती , सितारों से भर गई।
माथे पे मेरे आज महताब जगमागाया है।

लम्स ने तेरे मुझ पे जादू सा कर दिया।
हर शख्स मेरी जानिब तक के मुस्कुराया है।

एक खुनक सी बिखर गई है मौसम में ।
हवाओं ने फिर से कोई नया गीत गुनगुनाया है।

**********************************

तेरी कमगोई से पहले ही थे गिले बहुत,
चुप रह के सितम तुमने कुछ और भी ढाया है।

नम हो गईं महफिल में सभी की आंखे
हाले दिल उसने कुछ इस तरह सुनाया है।

Saturday, June 25, 2005

उदासी और कविता

उदासी और मन का जरूर
कविता से कुछ गहरा नाता है;
जहां घिरे कुछ बादल गम के ,
गीत नया बन जाता है!

आंखे हैं या बादल हैं ये;
भेद न इनका हम जानें.
झङी लगी हो जब अश्कों की,
नज़र कहां कुछ आता है।

सांझा दर्द है हम दोनों का
आंखे मेरी, आंसू तेरे;
बहुत प्यार हो जब 'हम-तुम' में
कुछ का कुछ हो जाता है।


P.b. Shelley का एक वाक्य याद आता है:-
Our sweetest songs are those that come from saddest thoughts.

Monday, June 13, 2005

मित्र

मित्र तुम कितने भले हो!
तम से भरे इस सघन वन में;
दीप के जैसे जले हो!
मित्र तुम कितने भले हो!

तुम वो नहीं जो साथ छोङो;
या मुश्किलों में मुंह को मोङो।
राह के हर मील पर तुम,
निर्देश से बनकर खङे हो।
मित्र तुम कितने भले हो!

संशयों में मन घिरा जब;
तुम ही ने तो था उबारा।
पार्थ हूं जो मैं कभी,
तुम सारथि मेरे बने हो।
मित्र तुम कितने भले हो!

नयन से ढलें मोती कभी तो,
हांथ सीपी हैं तुम्हारे।
हर एक क्रन्दन पर मेरे तुम
अश्रु बनकर भी झरे हो।
मित्र तुम कितने भले हो!

भंवर में था मन घिरा जब;
तिनके का भी न था सहारा।
डगमागाती सी नाव की तब,
पतवार तुम ही तो बने हो।
मित्र तुम कितने भले हो!

Wednesday, June 08, 2005

मेरा परिचय

शब्द ही हैं मेरे आईना मेरा;
ढूंढती फिरती हूं कबसे,
मैं खुद ही का पता!

खुद के बारे में कुछ कहना, अपना परिचय देनाकुछ कठिन काम सा लगता है। लगता है जैसे एक जी हुयी कहानी को फिर से कहना या उङते फिरते तितली से शब्दों को तस्वीर बन जाने की सजा देना।
वैसे सीधे साधे शब्दों में कहें, तो कुछ मुश्किल भी नहीं है। तो शुरु करते हैं, नाम-सभी का एक होता है, मां पापा का दिया हुआ, पर पापा कहते हैं हमने अपना नाम खुद रखा था 'सारिका' जिसका अर्थ होता है 'मैना'। बाकी तो सब सोनू ही कहकर बुलाते हैं। अगस्त १९७६ को इस दुनिया में आये, स्थान था फतेहगढ (फर्रूखाबाद) [उत्तर प्रदेश]। शिक्षा-दीक्षा हुयी पहले फतेहगढ में और बाद में बरेली से इतिहास में स्नातकोत्तर किया। पढाई में हमेशा औसत ही रहे। पर भावुकता ने कलम से दोस्ती करा दी और बस भावनाओं को लव्ज़ों में ढालकर नज़्मों का रूप देते रहे। लिखा बहुत कुछ पर जाने क्यों कभी कुछ सम्भाल कर नहीं रख पाये।
पढाई खत्म हुयी तो फिर आती है विवाह की बारी- जैसे हर लङकी का दूसरा जन्म होता है, हमारे साथ भी ऎसे ही कुछ हुआ। इसे आध्यात्मिक विवाह कहें तो अतिशयोक्ति न होगी। हमारे आध्यात्मिक गुरु श्री पी. राजगोपालाचारी जी ने हमें चुना दक्षिण (हैदराबाद) के वेंकट सोनाथी के लिये, और ये चयन धर्म, जाति और भाषा के परे था। २४ जुलाई२००० को बिना किसी सामाजिक रीति-रिवाज के (बिना सात फेरों के) एक आध्यात्मिक समारोह में हम अपने जीवन-साथी के साथ नव-जीवन की ओर अग्रसर हो गये। विवाह ने हमें उत्तर से दक्षिण ही नहीं पहुंचाया बल्कि सात समुन्दर पार भी पहुंचा दिया, और साथ में बना दिया एक नन्ही सी कली की माँ!
तो है तो ये सीधी-सरल सी कहानी जो किसी के भी जीवन से मिलती-जुलती हो सकती है। मगर हम खुद के बारे में जब कभी गौर से सोंचते हैं तो खुद को एक बेटी, बहन, पत्नी और माँ से कहीं अलग हटकर एक एक अनोखी लङकी के रूप में पाते हैं जो स्वच्छन्द है, आजाद है जो किन्ही बन्धनों को नहीं मानती, जिसका बचपन अभी भी उसके साथ है,जो चिर यौवना है पर जीवन सन्ध्या को निकट से जानने की चरम उत्कण्ठा रखती है। एक ऎसी लङकी जो कभी तो 'अमृता प्रीतम' की 'अनीता' सी लगती है कभी 'शिवानी' की 'कृष्ण कली'। जिसका मन कभी बचपन की कुलांचे भरता है तो अचानक उसे प्रौढ गम्भीरता घेर लेती है। जिसे कभी जीवन की जटिलतायें भी विचलित नहीं कर पाती, पर कभी किसी का छोटा सा दर्द रुला जाता है......और ये फेहरिस्त बहुत लम्बी, बस चलती ही जायेगी। तो इसे बस यहीं विराम देते हैं बाद में फेर बदल तो होते ही रहेंगे।

Saturday, June 04, 2005

यादें

तुम कही तो होगे
हमें याद तो करते होगे।
यादें भूलाना आसां होता
तो हम कबके तुम्हे
भूल गये होते;पर
तुम अब भी
चुपके से
कभी किसी खिङकी से,
या किसी दरवाजे से
यादों में दस्तक दे जाते हो।
अपने कहीं अतीत में होने का
अहसास करा जाते हो
फ़िर ऎसे ही कहीं
हम भी तो
तुम्हारी यादों के किन्ही कोनों में
ज़िन्दा होंगे।
बेवजह किसी की बातों में
या यूं ही किसी के हंसने में
हम तुमको दिख जाते होंगे।
और फ़िर तुम कुछ झल्लाकर
या मुस्कुराकर
मेरी यादों को
दिल से भी दूर झटकते होगे।
दुनिया की रंगीनी में
कुछ रंग खुशी के तलाशते होगे।
....
ये जाने कैसा रिश्ता है
जो कभी बना नहीं
पर जाने कितना गहरा है
जो कहीं नहीं होकर भी
किस शान से दिलों में जिन्दा है।

वक्त का बजरा

वक्त का बजरा;
क्यूं बहता रहता है बेहिसाब ,
बेमक्सद सा।
लहरों की आजमाइश में ,
डूबता- उतराता
बहता रह्ता है ,
बस चुप-चुप सा।
दिन आते हैं ....
गुजर जाते हैं.....
कुछ मानूस,
कुछ अजनबी
जैसे किसी अर्गनी पर
टंग कर उतर जाते हैं।
बस वक्त खङा रहता है
ठिठका सा!
ख्वाबों की
सपनीली सतहों पर
जहां सब कुछ
मुट्ठी में बन्द
रेत सा लगता है
मन क्यूं पहुंच जाता है
और तकता रहता है
बेबस सा!
--सारिका

Friday, June 03, 2005

शब्द.....

शब्द.....
क्या हैं आखिर शब्द? अक्षरों से भरी एक उंजलि ही तो हैं,
जो बनते हैं उदगार कितने बेचैन ह्र्दयों का...
कभी गीत का रूप लेते हैं ये शब्द ,कभी नज़्म का।
कभी कहते हैं कोई कथा, कभी बयान करते हैं कोई किस्सा।
कभी मौन होकर ही कह देते हैं किन्ही अनकही बातों को।
उकेर सकते हैं ये शब्द पत्थर की किसी मूरत को...
कभी ये शब्द इन्द्रधनुषी रंग बिखेरते हैंकिसी चित्रकार की तूलिका से।
शब्दों का नहीं है कोई आदि या अन्त ...,
युगों से ये खुद ही हैं पहचान अपनी गवाह हैं इतिहास के!
इन्हीं जादुई अक्षरों से भरी ये उंजलि ...
अर्पित है ये शब्दांजलि!

कौन हो तुम

अनकही बातें
कौन हो?
कुछ तो कहो तुम!
स्वर्ण हो ?
या हो रजत तुम!
आने से तुम्हारे मन खिला है;
पर कहीं तूफ़ां तो नहीं हो?
बहार हो ?
या हो खिजा तुम!
लगते तो हो प्रातः किरण जैसे;
पर कहीं रात्रि तो नहीं हो?
उषा हो?
या हो निषा तुम!
कहती हैं आंखे कुछ तो तुम्हारी;
पर कहीं ये कुछ वहम न हो,
यथार्त हो?
या हो कल्पना तुम!
हैं कितनी गहरी बातें तुम्हारी,
कितने जाने डूब गये हों;
नदिया हो?
या हो सागर तुम!
साथ तुम्हारा भला लगता है;
पर इस रिश्ते को नाम क्या दूं?
अपने हो?
या हो अजनबी तुम!
--सारिका सक्सेना