Sunday, December 20, 2009

ये कैसी बहस?

आजकल ब्लाग जगत में हर जगह नारीवादी बहस चल रही है। रोज़ की ही तरह काव्य मंजूषा पर गये और वहां होते हुये श्री विवेक रस्तोगी जी के ब्लाग पर पहली बार जाना हुआ।
क्यों होती है कुछ लोगों की सोंच इतनी छोटी और बचकानी। हां नारी और पुरुष एक दूसरे के बराबर हैं और उन्हें समान अधिकार मिलना ही चाहिये। जैसे कि बहुत से लोगों का मानना है नारी और पुरुष एक दूसरे के पूरक हैं, एक ही गाडी के दो पहिये हैं और एक के बिना दूसरा अधूरा है। फिर ये एक दूसरे का स्थान लेने की फालतू की बहस क्यों। नारी चाहे तो पुरुष का स्थान ले सकती है। आजकल तो महिलायें घर और बाहर दोनों का मोर्चा संभाले हुये हैं और बखूबी अपना रोल निभा रही हैं। हां और किसी भी "प्रगतिशील" नारी को कोई ऎतराज क्यों होगा पुरुष के हाउस हसबैंड बनने में।
अजय जी ने लिखा है:-
केवल स्वांग है ये कि नारियों को समान अधिकार है, हाँ मैं मानता हूँ कि नारी को सम्मान देना चाहिये पर क्या नारी इसके उलट सोच का जबाब दे सकती है !!! कि आर्थिक रुप से घर नारी चलाये और सामाजिक रुप से घर पुरुष ।
ऎसी मानसिकता वाले लोग कहते तो हैं कि नारी को सम्मान देना चाहिये, पर करते पग-पग पर उसका अपमान करते हैं। आर्थिक रूप से घर चलाने का काम नारी के लिये कोई नई बात नहीं है। अपने देश में निचले तबके के लोगों को ही लीजिये जो प्रगतिशील नहीं हैं फिर भी घर चलाने का काम वहां नारी ही करती है। पर पुरुष अपना कर्तव्य पूरा करने के बजाय शराब और जुऎ में निर्लिप्त रहते हैं।
नारी घर और बाहर दोनों को निभा सकती है। पर पुरुष तो ऎसा करने की सोंच भी नहीं सकते। प्राकॄतिक रूप से जो गुण हम नारियों के पास हैं उसकी तुलना पुरुष कर ही नहीं सकते। और सृष्टि को आगे बढाने का काम भी सिर्फ नारी ही कर सकती है।
हमने अजय जी का ब्लाग पहले नहीं पढा है और न ही हम उनकी मानसिकता को जानते हैं, फिर भी हमें और हमारी जैसी अन्य महिलाओं को उनकी इस प्रकार की भाषा से आपत्ति तो होगी।

Friday, December 18, 2009

खामोश मुलाकात

लफ़्ज फूलों से झरे
तेरे लबों से;
और मैंने चुन लिया उन्हें,
अपनी हथेलियों के दोनों में.
तहा के रख दिया,
वक्त की पैरहन के साथ.
ताकि जब मन उदास हो,
और तुम बेतरह याद आओ;
तो, फिर से जी सकूं-
उन बेशकीमती लम्हों को,
फिर से सुन सकूं-
तेरी आवाज़ के नग्मों को.
छू सकूं तेरे
छुई-मुई से लव्ज़ों को;
दोहरा सकूं आज की इस
छोटी सी खामोश मुलाकात को,
जब तुमने कहा तो कुछ नहीं था,
पर मेरे मन ने सुन लिया था,
तेरी अनकही बातों को!

Monday, December 14, 2009

चेहरे पे चेहरा

तेरे चहरे में
हर रोज़ नुमायां होता है
एक नया चेहरा;
जिसे मैं नहीं जानती हूं,
न पहचानती हूं
जिससे मिलकर मुझे
कोई खुशी नहीं होती।
बस अजनबी पन का एक अहसास
भर देता है मुझे अंतर तक।
यूं तो मैं करती हूं
तुम्हें बेइंतहा प्यार
पर अब मुझे डर लगने लगा है
अपनी इस मुहब्बत से!
कि कहीं 'इस सब' के चलते
मेरी अपनी खुदी की ही
मौत न हो जाय;
मान कर तुझे अपना मजाज़ी खुदा
मेरा अपना खुद ही
न मिट जाय।