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आज यूं ही किताबो की अलमारी साफ़ करते हुये किताबे उलट पलट रहे थे कि बशीर बद्र की इस खूबसूरत गज़ल पर नज़र अटक गई. सोंचा आप सब के साथ बांट ले.
वो शाख है न फूल, अगर तितलियां न हों
वो घर भी कोई घर है जहां बच्चियां न हों
पलकों से आंसुओं की महक आनी चाहिये
खाली है आसमान अगर बदलियाँ न हों
दुश्मन को भी खुदा कभी ऐसा मकां न दे
ताज़ा हवा की जिसमें कहीं खिड़कियाँ न हों
मैं पूछता हूँ मेरी गली में वो आए क्यों
जिस डाकिये के पास तेरी चिट्ठियां न हों
--बशीर बद्र
7 comments:
क्या कहने बशीर बद्र साहब के और आपकी पसंद के ...
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
सचमुच आजकल तो डाकिए वैसे भी नहीं आते। क्योंकि सारी डाक तो इडियट बॉक्स के भाई यानी कम्प्यूटर में आती है।
सारिका जी आज पहली बार आपके ब्लाग पर आना हुआ। अच्छा लगा। संयोग से मैं भी बंगलौर में ही हूं।
bahut pyaari ghazal padhawaayi aapne...
अच्छी प्रस्तुति
bahut achhi prastuti
बेहतरीन प्रस्तुति...
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