अनकही बातें
कौन हो?
कुछ तो कहो तुम!
स्वर्ण हो ?
या हो रजत तुम!
आने से तुम्हारे मन खिला है;
पर कहीं तूफ़ां तो नहीं हो?
बहार हो ?
या हो खिजा तुम!
लगते तो हो प्रातः किरण जैसे;
पर कहीं रात्रि तो नहीं हो?
उषा हो?
या हो निषा तुम!
कहती हैं आंखे कुछ तो तुम्हारी;
पर कहीं ये कुछ वहम न हो,
यथार्त हो?
या हो कल्पना तुम!
हैं कितनी गहरी बातें तुम्हारी,
कितने जाने डूब गये हों;
नदिया हो?
या हो सागर तुम!
साथ तुम्हारा भला लगता है;
पर इस रिश्ते को नाम क्या दूं?
अपने हो?
या हो अजनबी तुम!
--सारिका सक्सेना
4 comments:
sarika ji,
shabdon ka prayog bahut achha laga. is kavita me arth ki ek laya hai..keep it up
धन्यवाद तारव जी!
प्रतिक्रिया पाकर और लिखने का उत्साह दूना हो जाता है।
सारिका
Sarikaji,
Bhavnaon aur shabd ka sangam hi kavita hoti hai par aap to ek kadam aage nikal gayi .great
Congrets
Sarika Ji,
Muzhe aapki kavita acchi lagi ayse hi kavita likhte raho..........
Thanks
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