Thursday, January 14, 2010

दूरदर्शन और मिले सुर मेरा तुम्हारा....


पिछले पांच- छ: महीनों से हमने टीवी केबिल कटवाया हुआ है। बच्चे हर वक्त टीवी देखने की जिद करते थे और हमें हमेशा लगता था कि ये सब सही नहीं है उनके नन्हें दिमाग के लिये। यही सोंच कर हमने ये कदम उठाया। दिन अच्छे गुज़र रहे थे बिना टीवी के। कभी कभार वीक एंड पर कुछ मूवी देख ली या बच्चों के लिये कुछ उनकी उम्र के अनुसार लगा दिया। तभी एक मित्र (जिनके घर भी केबिल नहीं है) ने बताया कि सौ रुपये में एक एंटीना मिलता है जिससे सिर्फ दूरदर्शन देखा जा सकता है। हमने सोंचा कि शायद दूरदर्शन अच्छा रहेगा कभी-कभी बच्चों के लिये और अपने लिये भी। बस अब एंटीने की खोज शुरु हो गई। कितनी ही दुकानों पर पूंछा, सब मुस्कुरा कर कहते, "आजकल के जमाने में दूरदर्शन कौन देखता है।"

खैर कई हफ्तों की खोज के बाद एक दुकान वाले ने ये ऎंटीना मंगवा ही दिया। हमने बडी खुशी के साथ एंटीना एंस्टाल किया। ट्रांस्मीशन इतना साफ नहीं था, फिर भी काम चलाऊ पिक्चर आ ही गई। पिछले दिनों बांग्ला देश और श्री लंका सीरीज़ के तहत हमारे पतिदेव ने अपने पूर्वप्यार क्रिकेट के साथ कुछ पल गुजारे। हां बच्चों को कुछ नहीं मिला अपनी पसंद का क्योंकि सुबह शाम तो क्न्नड दूरदर्शन ही आ रहा है।

आज हमें खाली वक्त मिला ता टीवी आन किया(यूं तो टीवी देखना भूल सा गये थे) तो चिरपरिचित संगीत सुनाई दिया। "मिले सुर मेरा तुम्हारा...तो सुर बने हमारा.." मन खुश हो गया। पूरे एलर्ट हो कर बैठ गये और गीत की एक एक पंक्ति, एक एक द्रष्य को फिर से जिया। कांती को बुलाया , "देखो ये गाना जब हम छोटे थे तब भी आता था।" उसने आकर एक झलक देखा और ओके कहकर वापस अपने खेल में रम गई। और हम पता नहीं कितने साल पुरानी यादों में पहुंच गये। पता नहीं कितने सालों से ये गीत दूरदर्शन की पहचान बना हुआ है। कितना अच्छा लगा इस गीत के साथ बचपन की गलियों में एक बार फिर से झांकना। अपने बचपन के कितने सीरियल एकदम से याद आ गये। सिग्मा, इंद्र्धनुष, कच्ची धूप, नीव, फाइटर फेने और भी जाने क्या कया। हम सब रविवार का कितनी बेसब्री से इंतज़ार करते थे। और अपना सब काम निबटा कर बैठ जाते थे टीवी के सामने। और ऎसे में गर्मी के दिनों में पावर कट कितना रुलाता था। कितने खूबसूरत दिन थे। पर शायद हमारे मम्मी पापा को कभी सोंचना नहीं पडा होगा कि होगा कि ये कार्यक्रम हमारे बच्चों के लिये ठीक है भी कि नहीं। बस रविवार को ही अपने पसंदीदा सीरीयल देख कर हम लोग खुश हो जाया करते थे और सारे हफ्ते उसी की बातें होती थीं।

और आजकल अनगिनत टीवी चैनलों पर अनगिनत सीरियलों में क्या परोसा जा रहा है, उसका लेखा जोखा कौन रख सकता है। हमेशा ये डर सा लगा रहता था कि पता नहीं बच्चे जो कुछ टी्वी पर देख रहे हैं वो उनके विकास के लिये ठीक है भी कि नहीं। आदत सी पड गई थी बच्चों के साथ बैठ कर कर टीवी देखने की। अचरज होता था देख कर जरा जरा से बच्चों में पवित्र स्नेह की भावना को लाल रंग के दिल बना कर उसे रोमांस का नाम दे दिया जाता है। और मार-पिटाई भी कितनी होती इन प्रोग्राम्स में। चाहें वो टाम अन्ड जेरी हो या कोई चीनी जापानी हिन्दी/अंग्रेजी में अनुवादित सीरियल शिनचैन, निंजा हथौडी, परमैन या ऎसा ही कुछ और। बच्चे इन कार्यक्रमों को देख कर लगता है जैसे जल्दी बडे हुये जा रहे हैं। हमने अपने पडोस में मांओं को बात करते सुना है कि हमारा बच्चा तो अब डोरा से ग्रेजुयेट हो कर परमैन पर आ गया है। या "हमने अपनी बेटी को अब डिज़नी चैनल पर 'हैना मोंन्टेना' देखना अलाउ कर दिया है। आखिर वो दस साल की हो गई है। उसकी सब फ्रेंड्स देखती हैं तो वो लैफ्ट आउट फील करती है। शी इज़ आलमोस्ट अ टीन एज़र नाउ।"

पता नहीं क्यों हम ऎसी बातों में कभी प्रतिभागी नहीं बन पाये। हम तो खुश हैं कि हमारे घर केबिल नहीं है। हमारी आठ साल की बिटिया भी टीवी देखने की जिद करती है। पर हम उसे किसी न किसी तरह समझा देते हैं और हमारी लायब्रेरी में आये दिन ही एक नयी किताब का इजाफा होता है। जब बाकी सारे बच्चे बुद्धू बक्से के सामने बिना हिले-डुले बैठे होते हैं, तब हमारी दोनों बेटियां कुर्सियों के इर्द-गिर्द चादरें तान कर घर बना रही होती हैं। उस वक्त दोनों क्या मज़ेदार बातें करती जाती हैं। टीन एज़ से बहुत दूर हमारे बच्चे बचपन की गलियों मे विचरण कर रहे हैं। लगता है दोनों का कुछ झगडा हो गया है। चलते हैं.....आसान नहीं है वैसे दोनों का झगडा निपटाना।
(चित्र गूगल से साभार)

10 comments:

Dr. Shreesh K. Pathak said...

आपकी बात दुरुस्त है...पर हर समय की अपनी धुन होती है..अप एक समय की धुन पर दूसरे समय की धुन नहीं चढा सकतीं..इस समय का 'मिले सुर मेरे तुम्हारा' कुछ और होगा..वो आने वाली माएं आपस में बतियाना चाहेंगी अपने बच्चों के साथ...! थोड़ा विचित्र और चुनौतीपूर्ण है वैलू जजमेंट देना...!

कुछ मूल्य संजोये रख सकते हैं हम...अभ्यास और सद्भाव से बस....बाकी कुछ भी नियंत्रित नहीं कर सकते हम..और ना करना ही चाहिए...हम एक भ्रम में रह जायेंगे..बच्चे बगीचे से अमरुद हर जेनेरेशन में तोड़ ही लेते हैं..उन्हें कुछ मूल्य और संस्कार ही बचा पाते हैं..आगे चलकर अन्यान्य चुनौतियों से जो हम उन्हें दे सकते हैं...आज, अपने ममत्व से...!!!

Himanshu Pandey said...

बिलकुल सही कहा आपने ! दूरदर्शन वस्तुतः शुरुआत में अकेला था, और हमारी कल्पना शक्ति के लिहाज से उस वक्त के लिये बिलकुल दुरुस्त ।
वक्त की तेजी ने दूरदर्शन के अनगिन विकल्प दिये, मानस बदला और व्यवहार भी परिवर्तित हो गये ।

बच्चे ज्यादा जल्दी परिपक्व हो रहे हैं, पर हम चाह कर भी उन्हें रोक नहीं सकते ! वक्त की तेजी फिसला ले जायेगी उन्हें ! वैसे कसकता है मन यह सब देखकर !

प्रविष्टि का आभार ।

manu said...

सुर की नदिया..हर दिशा से...
बह के सागर में मिले....

बादलों का रूप लेके...
बरसे..
हलके..
हलके...

मिले सुर मेरा तुम्हारा.....

तो सूर ....बने हमारा.....क्या याद दिला दी आपने जी...

daanish said...

hm sabhi waqt kee raftaar ke haathoN majboor haiN....usi ke saath hi jiye chale jaana hi zindgi ho gayaa hai....
aapka ehsaan . .
itne nayaab paakeza bachpan ke lamhe yaad dilaa diye aapne
abhivaadan .

Anonymous said...

"अचरज होता था देख कर जरा जरा से बच्चों में पवित्र स्नेह की भावना को लाल रंग के दिल बना कर उसे रोमांस का नाम दे दिया जाता है। और मार-पिटाई भी कितनी होती इन प्रोग्राम्स में। चाहें वो टाम अन्ड जेरी हो या कोई चीनी जापानी हिन्दी/अंग्रेजी में अनुवादित सीरियल शिनचैन, निंजा हथौडी, परमैन या ऎसा ही कुछ"
बहुत सही, सच्ची और खरी बात. "मिले सुर मेरा तुम्हारा..." से तो आपने मुझे भी पुराने टीवी सेरिअलों की यादें ताजा करा दीं - धन्यवाद्.

kavita verma said...

mile sur mera tumhara apane aap me poore desh ki sanskriti snmete hue tha,us samay ke karyakram aaj bhi jehan me taaza hai.
.

shikha varshney said...

aah kya yaad dila dia apne....mile sur mera tumhara...ajeeb se jajba tha is geet ke shabdon main..

Manish said...

thanx..... main bhi "mile sur" par kuchh likhne vaala tha....

but meri baat toh poori tarah se aapne hi kah di....

"पता नहीं क्यों हम ऎसी बातों में कभी प्रतिभागी नहीं बन पाये। हम तो खुश हैं कि हमारे घर केबिल नहीं है।"

manu said...

kai din baad aaye...

fir bachpan taazaa ho uthaa.....

doordarshan par bholaa bhaalaa shreekant...faarukh sheikh...

aur wo fateechar...pankaj kapoor....

kitna miss karte hain ham ab bhi un dhaaraawaahikon ko....

idanamum said...

सारिका जी आपने बिलकुल सही कहा। इस गीत से हमारी पीढ़ी की न जाने कितनी यादें जुड़ी हुई है। एक बार नेट सर्फ करते वक़्त जब यही गीत यूट्यूब पर मिल गया तो डाऊनलोड कर लिया था। अभी भी कभी कभी इस गीत को सुन लेता हूँ।