Thursday, June 17, 2010

प्रक्रिया स्कूल

अपनी पिछली की पोस्ट में हमने अपनी बेटी के नये स्कूल का जिक्र किया था आज कुछ और इस अन्कन्वैन्शनल स्कूल के बारे में...

स्कूल का नाम है प्रक्रिया ग्रीन विज़डम स्कूल। यह सरजापुर बैंगलौर में है। शहर के बाहर करीब तीन किलोमीटर कच्ची रोड पर गांव में बसा हुआ है। वैसे तो अब शहर और गांव में कोई अंतर नहीं रह गया है, पर रोड कच्ची होने के कारण अभी ज्यादा बसा हुआ नहीं लगता। पहली नज़र में देखने पर कोई हाई-फाई स्कूल नहीं लगता। पर प्रकृति की छांव में, शहरी प्रदूषण से दूर पूरा कैम्पस मन मोह लेता है।

शायद इसे आधुनिक गुरुकुल कहना ठीक रहेगा। यहां बच्चों की कोई यूनीफारम नहीं है। हल्के आरामदायक कपडों में स्कूल जाना होता है। फील्ड ट्रिप और कुछ खास दिनों के लिये प्रक्रिया टी शर्ट (जो कि पंच तत्वों के रंग हरा, नारंगी, नीला बैंगनी आदि रंगो में होती हैं) पहन कर जाना होता है। क्लास में जाने से पहले जूते मोज़े उतारकर निर्धारित जगह पर रखने होते हैं। क्लास में बच्चे सेमी सर्कल में चटाई पर बैठते हैं और किताबें लकडी की चौकी पर रखते हैं। एक क्लास में बस १७ बच्चे होते हैं। सप्ताह में दो बार कई क्लास साथ मिलकर पढते हैं। इन्हें वर्टिकल क्लास कहा जाता है। क्लास में भाषाएं (इंग्लिश, हिन्दी, कन्नड)पढायी जाती हैं। इन्हें भी रोचक तरीके से पढाया जाता है, रोल प्ले होते हैं जिनमें बच्चे भाग लेते हैं और पढाई उबाऊ न होकर एक मनोरंजन बन जाती है। मैथ की पढाई क्लास में न होकर मैथ लैब में होती है। जहां बीड्स, ऎबाकस जैसे इन्स्ट्रूमैंट्स के साथ खेल-खेल में बच्चे मैथ सीखते हैं।

साइंस,वैल्यू एजूकेशन, जीके आदि के लिये अन्य स्कूलों की तरह यहां पाठ्य पुस्तकें नहीं हैं। ये सब इन्हें प्रकृति की गोद में पंच भूतों (आकाष, जल, पृथ्वी, अग्नि, वायु) को संदर्भ में रख कर सिखाये जाते हैं। इन्हें थीमैटिक लर्निंग क्लास TLC कहा जाता है। सत्र के पहले दिन बच्चे प्लांटिग करते हैं। और फिर पूरे साल वो अपने पौधों की देखभाल करते हैं। टाइम टेबिल के हिसाब से डांस, पौटरी, पेंटिग, गेम्स आदि के पीरियड होते हैं। समय-समय पर बच्चे नेचर वाक पर जाते हैं। एक क्लास रिस्पांस्बिलिटी की भी होती है, जिसमें सब बच्चे मिल कर काम करते हैं, जैसे चटाई फोल्ड कर के रखना, चौकी जगह पर रखना, किताबें बांटना। बच्चों को सारी किताबें घर नहीं लानी होती, बस जिस विषय में होम्वर्क( ज्यादातर एक विषय या दो) हो वही किताब घर ले जानी होती है। इस तरह बस्ते का कोई बोझ ही नहीं होता।

टिफिन में जंक फूड (मैगी, बर्गर, चाकलेट) ले जाना मना है। टिफिन भी स्टील का होना चाहिये। लो वेस्ट जींस या बहुत फैशनेबल कपडे भी अलाउड नहीं हैं। बर्थडेज़ पर भी स्कूल में चाकलेट, केक या रिटर्न गिफ्ट देना मना है। ये दिन अलग तरह से बच्चों पर खास ध्यान देकर मनाया जाता है। बच्चे अपने दोस्तों को चिक्की या फल बांट सकते हैं, या लायब्रेरी को किताबें भी दे सकते हैं।

प्रोजैक्ट वर्क भी वास्तविक ज़िन्दगी से जुडे और बच्चों द्वारा चुने होते हैं। जैसे पिछले साल मिडिल स्कूल के बच्चों ने स्कूल के पास सूखती जा रही एक झील को बचाने का अभियान किया था, जिसमें वो सफल भी रहे। अपने अध्यापकों के नेतॄत्व में बच्चों ने झील की नाप-जोख की, सरकारी पदाधिकारियों से मिले, और जो भी उन्हें महत्वपूर्ण लगा, किया।

ऎसे ही और भी बहुत सी विशेषताओं के साथ ये स्कूल बच्चों को बहुत ही पसंद आता है। हमारी बेटियों ने ( कांती- 4th, वरम - play group) जब से ये स्कूल ज्वाइन किया है उनकी खुशी का पारावार नहीं है। कांती जो पहले हमेशा स्कूल से आने पर थकी रहती थी, अब हमेंशा चहकती होती है। अपने स्कूल के बारे में बताने को उसके पास इतना कुछ होता है कि उसकी बातें ही नहीं खत्म होतीं। और छोटी वरम को तो रात में भी स्कूल जाना होता है, और उसे प्रिया आंटी और लता आंटी (यहां टीचर को आंटी बुलाते हैं।) ही चाहिये होती हैं।

(इस पोस्ट में हमने काफी इंग्लिश शब्दों का प्रयोग किया है। पता नहीं क्यों शायद यही अब आम बोल चाल की भाषा सी बनती जा रही है। आस-पास भी हिन्दी बोलने वाले इतने कम हैं कि सोंचना पडता है कई शब्दों को हिन्दी में क्या लिखें। इसलिये बस जैसा बन पडा लिख दिया। अगर अच्छी हिन्दी में लिखते तो लिखना शायद टलता ही जाता , तो बस जैसा मन में आया लिखते गये।)

Wednesday, June 16, 2010

बहुत दिनों बाद.....

ज़िन्दगी फिर से अपनी बंधी हुयी रफ्तार से चलने लगी है। कई दिनों से मन हो रहा है कुछ लिखने का पर बीच में काफी लम्बा गैप सा आ गया है इसलिये कलम को सूझ नहीं रहा है कि कौन सा टूटा सिरा कहां से पकडे।
पिछले काफी दिनों से कुछ नहीं लिखा। कारण अनेक थे। पहले कम्प्यूटर खराब हो गया उसके बाद छुट्टियों में हैदराबाद चले गये। उसके बाद तो मसरूफियत का सिलसिला ऎसा चला कि अब थोडी फुरसत मिली है। पतिदेव के जाब बदलने की वजह से शहर के एक कोने से दूसरे कोने में शिफ्ट होना पडा। यूं तो बचपन से ही घर बदलना, नयी जगहों पर जाना हमें बहुत पसंद रहा है, पर बडे होने के बाद ही असली आटे दाल का भाव समझ में आता है। जगह बदलने के साथ सबसे पहली समस्या आती है बच्चों के स्कूल बदलने की। हमारी बडी बिटिया देहली पब्लिक स्कूल में पढती थी। यूं तो चाहें तो नई जगह पर भी डी.पी.एस. में ट्रांस्फर हो सकता था। पर हमें ये स्कूल पसंद नहीं था तो सोंचा नई जगह पर नये स्कूल की तलाश की जाय। लोगो से पूंछा, इंटरनेट पर भी ढूंढा। तो एक नये तरीके के स्कूलों के बारे में पता चला जो कि अन्कन्वेंशनल स्कूल कहलाते हैं| ऎसे स्कूल में पारम्परिक स्कूली पढाई के साथ बच्चे पूर्ण विकास के बारे में भी ध्यान दिया जाता है। हमने जे Krishnamurti के वैली स्कूल के बारे में तो सुना था और ये भी पता था कि यहां एड्मिशन बहुत ही मुश्किल से मिलता है। हमारे एक पारिवारिक मित्र ने बताया कि वैली स्कूल के पैटर्न पर ही एक और स्कूल है प्रक्रिया ग्रीन विज़डम स्कूल। हमने इस स्कूल के बारे में खोजबीन की। इत्त्फाक से ही इस स्कूळ में चौथी क्लास में एक ओपनिंग थी और हमारी बिटिया को उसमें एड्मिशन मिल गया। छोटी वाली को भी प्ले ग्रुप में उसी स्कूल में एडमिशन मिल गया।
स्कूल के बाद फिर शुरु हुई घर ढूंढने की जद्दोजहत। बहुत से घर देखे, किसी में कुछ पसंद आता था किसी में कुछ। कुछ हमें पसंद आता तो पतिदेव को नापसंद। हमारे पतिदेव को हमेशा ऊंचे फ्लोर पसंद आते हैं, और हमे धरती से जुडे रहना भाता है। खैर हम हमेशा कम्प्रोमाइज़ करने में यकीन रखते हैं। पहले रह रहे थे सातवें और आखिरी फ्लोर पर, और इस बार पसंद आया १४वां फ्लोर। पर अपार्टमेंट ऎसा था कि देखते ही पसंद आ गया। शोभा के अपार्टमेंट की यही खासियत है कि फ्लोर प्लान और कंस्ट्रक्शन इतना बढिया होता है कि आप पहली बार में ही दिल हार बैठते हैं।
खैर फिर शुरु हुआ पैकिंग और मूविंग का सिलसिला। अपने पिछले मूविंग अनुभव (यूएस से बैंगलोर)से कम्पेयर करें तो ये मूविंग बहुत आराम से निबट गयी। अब सबकुछ एक ढर्रे पर आ गया है। अपार्टमेंट में सबकुछ सैट हो गया है। कामवाली भी मिल गयी है। बच्चों ने स्कूल जाना शुरु कर दिया है। ब्राड्बैंड कनैक्शन भी आ गया है। तो अब बस हम हैं और हमारा डैस्कटाप। इतने सारे ब्लाग्स को फालो कर रहे हैं, दो दिन न पढो तो गूगल रीडर पर संख्या बढती जाती है। और हम तो करीब महीना भर से कुछ नहीं पढ पाये थे। करीब ८०० पोस्ट थीं गूगल रीडर पर पढने के लिये। पिछले तीन दिन से उन्हें ही पढने में लगे थे। आज जब सब पढ कर खत्म किया तो यूं ही कुछ लिखने का मन हो आया और बस...