Saturday, December 25, 2010

ख़्वाब

कच्ची मिटटी से थे
जो ख़्वाब  कल बनाए थे,
चलो  आज पका लें उन्हें
अपने हांथो की
गर्मी से, अपनी साँसों की तपिश से
की ख़्वाब हैं ये तो
इन्हें चाहिये बस
हांथों की नरमी और साँसों की नर्मी
नहीं मिला जो इन्हें
तेरी बाहों का सहारा
तो बह जायेंगे आंसुओं के
समंदर में.......

Wednesday, December 01, 2010

काहे को ब्याही बिदेस...

पापा-मम्मी
Family photograph
पापा-मम्मी बैंगलौर में...
आज यूँ ही जाने क्यों जीवन के जाने अनजाने कितने ही रिश्तों के बारे में सोंचने बैठ गए हैं| अजीब होते हैं न ये रिश्ते भी...क्यों बनते हैं, कैसे बनते हैं और कैसे जीवन की हर एक डगर पर नए-नए रूप लेते रहते हैं|  हम सोंच रहे हैं उस रिश्ते के बारे में जो जन्म से पहले ही बंध जाता है- एक बच्चे का उसके माता-पिता से रिश्ता| कहीं पढ़ा था की आत्मा खुद चुनती है अपने नए जन्म में अपने माँ-बाप को| ये रिश्ता होता ही है ऐसा गहरा.. एक माँ  के लिए उसका बच्चा उसकी दुनिया होता है और बच्चे के लिए उसकी दुनिया उसकी माँ तक ही सीमित होती है| पर जैसे जैसे बच्चा बड़ा होता जाता है उसकी दुनिया उसके साथ ही बढती जाती है|

 आज ये सब बातें हम इसलिए सोंचने बैठे  हैं क्योंकि  हम अपने मम्मी पापा को बहुत याद कर रहे हैं| पता नहीं क्यों उन्हें इतना याद करने पर भी हम उनसे फोन पर बात नहीं कर पाते| पिछले  करीब दो महीने  वो लोग हमारे साथ बैंगलौर में थे| वो दो  महीने उनके साथ कैसे बीत गए पता ही नहीं चले| वेंकट यू एस गए हुए थे...हमने ये सारा वक्त मम्मी पापा के साथ ऐसे गुज़ारा जैसे शादी से पहले रहते थे| मम्मी ने पूरा किचन संभाल लिया था | रोज़ दोपहर -शाम को गरम- गरम खाना तो जैसे भूल गए थे| खुद बना कर खाने में वो मज़ा कहाँ है जो माँ के हाँथ के बनाए खाने में है| मम्मी पापा की वजह से ही अपना इतने दिनों का बिसराया शौक फिर से शुरू कर दिया| घर -ग्रहस्थी के चक्कर में हम जो क्राफ्ट बिलकुल भूल गए थे वो उन लोगों के कहने से फिर शुरू कर दिया| कोई भी नयी चीज़ बना कर उन लोगों को दिखाने में कितना अच्छा लगता था| और पापा हमेशा तारीफ़ करने के साथ expert comment देना नहीं भूलते थे|

My Dashing Papa
क्यूँ ऐसा होता है की शादी करने के बाद लड़कियों को घर छोड़कर जाना पड़ता है|  वैसे तो लडके भी आजकल अपने माता-पिता के साथ नहीं रहते| पर उनकी मजबूरी लड़कियों जैसी नहीं होती| आज पता नहीं क्यों हम इतना भावुक हो रहे हैं| अपनी शादी के बाद की विदाई याद आ रही है; जो कि बिलकुल भी नार्मल विदाई जैसी नहीं थी| पापा की वजह से ही हमारी शादी एक अध्यात्मिक समारोह में हुई थी| हमारे गुरु जी ने हमारे लिए जाती, भाषा, प्रदेश इन सबों से परे हमारे लिए वेंकट को चुना था| शादी हुई थी कलकत्ता में, हम थे फतेहगढ़ से, ससुराल थी हैदाराबद में, और पति देव रहते थे मिशिगन यू एस में. विदाई भी बहुत कन्फ्यूज्ड सी थी| रेलवे स्टेशन पर पापा कि वापसी कि ट्रेन थी प्लेटफार्म नम्बर १० पर और हमारी ट्रेन थी २ नम्बर पर| पापा स्टेशन पर पहले ही पहुँच चुके थे, और हम लोग ट्रैफिक के चलते लेट हो चुके थे| किसी तरह भागते दौड़ते पापा कि ट्रेन तक पहुंचे, कुछ बात भी नहीं कर पाए थे कि ट्रेन ने सिग्नल दे दिया| हमेशा से ही हम इतना शर्मीले थे कि पापा मम्मी तक से गले नहीं लग पाए| आज इसे लिखते हुए आँखे भर आई हैं|  अपनी अंतरजातीय, अन्तर्प्रदेशीय शादी पर हमें यूँ तो बहुत गर्व है,सात फेरे न होने का कोई अफसोस नहीं  पर आज भी पारंपरिक विदाई न होने का हमें अफसोस है|  काश अपने पापा- मम्मी से विदा होते हुए हम बिलख-बिलख के रो लिए होते तो मन में ये हमेश फांस सी न चुभती|  अब भी जब पापा -मां हमारे घर से जा रहे होते हैं, या हम फतेहगढ़ से आ रहे होते हैं तो हम अपनी भावनाए खुल कर दिखा  नहीं पाते| उनके सामने रोना छुपाते रहते है और बाद में अकेले में मन का गुबार निकलता है|

हमारी शादी..

आज उन लोगों को वापस गए तीन हफ्ते हो गए हैं|  जिंदगी पहले जैसी कल रही है पर दोपहर में जब अकेले खाना खाने बैठते हैं तो न चाहते हुए भी आंसू आ जाते हैं| पेट भी नहीं भरता, रात को फिर बच्चों के और वेंकट के साथ खाकर पेट भरता है|


I really miss you papa- mummy!
काश आप हमेशा हमारे पास रह सकते|

Monday, September 20, 2010

...एक अनकही कहानी!



लिखना कभी उसका पैशन हुआ करता था.. कुछ लिखे बिना उसे जीना नहीं आता था, लिखना जैसे की उसके लिए सांस लेना जैसा था. कुछ कविता या नज़्म नहीं तो डायरी या फिर यूँ ही बेलौस बस लिखे जाना उसकी आदत सी थी. अगर वो कुछ पढ़ती भी तो उसकी कलम उसके साथ होती थी. किताब पर वो कुछ नहीं लिखती थी पर उसकी साफ़ शफ्फाक किताबों में रक्खी छोटी छोटी पर्चियों में उसकी समझ के अनुसार वो किताब पढ़ी जा सकती थी. उसके पर्स में हमेशा एक सफ़ेद पन्ना और एक कलम जरुर होती थी. पर अपने लिखे हुए को वो संभाल कर नहीं रखती थी ये भी उसकी सभी अजीब आदतों सी एक आदत थी. अपनी आदतों में बंधी हुई थी, और अपनी आदतों से अलग कुछ करने में वो परेशान हो जाती थी, झुंझला जाती थी. एक बंधे बंधाये रूटीन में उसकी ज़िन्दगी चलती थी. बस इसी तरह जीना उसे आता था.....



 
और फिर एक दिन उसकी ज़िन्दगी ने करवट ली, वक्त की डाली पर एक नयी कोंपल नए मौसम के साथ यूँ उगी की पूरी फिजा ही बदल गयी. मुस्कुराहटों के मौसम छा गए. अब अपनी खुली किताब सी ज़िन्दगी वो छिपाने लगी. उसे लगता की उसके जज्बे कोई उसके चहरे  पर ही न पढ़ ले. और लिखना तो बस यूँ ही बंद हो गया. अब वो पढ़ती भी तो कुछ लिखती नहीं की कोई कुछ अंदाजे न लगा ले. यूँ सबसे सब कुछ छिपा कर रखना भी उसकी आदत सी हो गई..अब वो सपनों में जीती थी, उसके ख़्वाब उसकी अमानत थे..और वो अपने ख़्वाबों की दुनिया की शहजादी थी..अब वो लिखती नहीं थी, अपने शब्दों को खुद जीती थी, वो एक जीती जागती कहानी बन गयी थी....एक अनकही कहानी!

Thursday, August 26, 2010

.बस यूँ ही ..

अब तो ऊब हो गए बादलों की आँख मिचौली से..वैसे सब बैंगलौर के मौसम की तारीफ़ करते नहीं थकते ..हमें भी ये रूमानी सा मौसम बहुत भाता है....पर आज कल पता नहीं ये मौसम उदास सा लगने लगा है...सब कुछ सीला -सीला सा लगता है..पिछले साल पुराने घर में अपनी पुरानी दोस्तों के साथ समय पंख लगा कर उड़ जाता था..पर यहाँ नई जगह नया माहौल सबकुछ अजनबी सा लगता है ...हम वैसे भी दोस्त बनाने में बहुत कच्चे हैं.. बहुत वक्त लगाते हैं दोस्त बनाने में ... तो बस इंतज़ार है एक खिली खिली सी सुबह का खिले हुए सूरज का.. खुले हुए दिन का ..ये ऊबन तो टूटे कम से कम ....

...और मन के मिजाज़ से मेल खाती एक गुलज़ार की नज़्म...

सांस लेना भी कैसी आदत है
जिए जाना भी क्या रवायत है
कोई आहट नहीं बदन में कहीं
कोई साया नहीं है आँखों में
पाँव बेहिस है, चलते जाते हैं
इक सफ़र है जो बहता रहता है
कितने बरसों से कितनी सदियों से
जिए जाते हैं, जिए जाते हैं

आदतें भी अजीब होती हैं.

Tuesday, August 10, 2010

बशीर बद्र की एक ग़ज़ल


आज यूं ही किताबो की अलमारी साफ़ करते हुये किताबे उलट पलट रहे थे कि बशीर बद्र की इस खूबसूरत गज़ल पर नज़र अटक गई. सोंचा आप सब के साथ बांट ले.

वो शाख है न फूल, अगर तितलियां न हों
वो घर भी कोई घर है जहां बच्चियां न हों

पलकों से आंसुओं की महक आनी चाहिये
खाली है आसमान अगर बदलियाँ न हों

दुश्मन को भी खुदा कभी ऐसा मकां न दे
ताज़ा हवा की जिसमें कहीं खिड़कियाँ न हों

मैं पूछता हूँ मेरी गली में वो आए क्यों
जिस डाकिये के पास तेरी चिट्ठियां न हों

--बशीर बद्र

Saturday, August 07, 2010

बारिश



फ़लक पर बादल घिरे हैं मौसम भी भीना-भीना है,
बारिश तो होनी ही है ये अगस्त का महीना है।

Thursday, July 01, 2010

जन्मदिन मुबारक कांती



कल हमारी बेटी कांती का जन्मदिन है। कल वो नौ साल की हो जायेगी। वक्त जैसे पंख लगा कर उड जाता है, पता ही नहीं चलता। हर साल उसके जन्मदिन से पहले मन पुरानी यादों के सागर में डूबने उतराने लगता है। पहली बार मां बनने का अहसास क्या होता है, वो एक मां ही समझ सकती है। पिता के लिये भी ये अहसास शायद उतना ही महत्वपूर्ण होता है। अभी ही बस वेंकट से बात हो रही थी। और उन्हें भी हमने इसी प्यारे अहसास से भीगा हुआ महसूस किया। हर साल इस दिन हम लोग कुछ ऎसी ही बात करते हैं।
"कल कांती का बर्थ डे है।"
"हां एक और साल बीत गया।"
"अभी कल ही की बात लगती है, न!"
"हां"
"याद है वो हास्पिटल में बिताये ५ दिन।"
"हूं"
"कितनी छोटी सी थी, और आज देखो, बडी होती जा रही है। एक दिन शादी करके चली जायेगी।
"आप भी बस, वो जिस दिन से पैदा हुई है बस आपको उसके शादी करके जाने की फिक्र सता रही है।"
"हां जैसे तुम अपने पापा को छोड कर चली आई हो, वो भी ऎसे ही हमें छॊड कर चली जायेगी।"


हर साल हम लोग ऎसी ही बातों से रूबरू होते हैं। अभी भी हमें याद है जब आपरेशन थियेटर में परदे के पीछे से डाक्टर ने उसे हमें दिखाया था, अपनी गोल-गोल आंखो से उसने सीधे हमारी आंखो में देखा था। ढेर सारे घुंघराले बालों वाला वो गोल, चब्बी सा चेहरा, वो आंखे जिनमें सब कुछ जानने की ढेर सी जिग्यासा थी और होंठों पर एक हल्की सी मुस्कुराहट भी थी। वो याद आज भी हमारे जेहन में ऎसे ही ताजा है। वक्त की कोई सिलवट उसे धुंधला नहीं कर सकती।
आज ९ साल की कांती इतना बोलती है कि हम थक जाते हैं उसकी बातें सुनकर, उनका जवाब देकर। हर बात को जानने की उसकी जिग्यासा कभी कम नहीं होती। मेरी ही तरह वो भी किताबी कीडा है। इन्साक्लोपीडिया और इन्क्रेडिबल अर्थ उसकी फेवरेट किताबें हैं। एनिड ब्लेटन उसकी फेवरेट राइटर हैं। मेरी ही तरह वो बहुत भावुक भी है। पर कुछ बातों में वो बिल्कुल हमारे जैसी नहीं है। सफाई के नाम से उसका कोई लेनादेना नहीं है। कोई चीज़ जगह पर रखना उसे आता ही नहीं। स्कूल से आते ही उसका बैग कहीं होता है और जूते मोजे कहीं और। कभी कभी हम बहुत गुस्सा हो जाते हैं उस पर, लेकिन ज्यादा देर उससे गुस्सा रहना भी मुमकिन नहीं है, इतना बोलती है, इतने सवाल पूंछती है कि जवाब देना ही पडता है।
आजकल उसे कीबोर्ड बजाने का भी नया शौक हो गया है। उसे सरप्राइज़ बहुत पसंद हैं। तो इस बार उसे सरप्राइज़ बर्थ डे गिफ्ट में कैसियो मिलने वाला है।

Thursday, June 17, 2010

प्रक्रिया स्कूल

अपनी पिछली की पोस्ट में हमने अपनी बेटी के नये स्कूल का जिक्र किया था आज कुछ और इस अन्कन्वैन्शनल स्कूल के बारे में...

स्कूल का नाम है प्रक्रिया ग्रीन विज़डम स्कूल। यह सरजापुर बैंगलौर में है। शहर के बाहर करीब तीन किलोमीटर कच्ची रोड पर गांव में बसा हुआ है। वैसे तो अब शहर और गांव में कोई अंतर नहीं रह गया है, पर रोड कच्ची होने के कारण अभी ज्यादा बसा हुआ नहीं लगता। पहली नज़र में देखने पर कोई हाई-फाई स्कूल नहीं लगता। पर प्रकृति की छांव में, शहरी प्रदूषण से दूर पूरा कैम्पस मन मोह लेता है।

शायद इसे आधुनिक गुरुकुल कहना ठीक रहेगा। यहां बच्चों की कोई यूनीफारम नहीं है। हल्के आरामदायक कपडों में स्कूल जाना होता है। फील्ड ट्रिप और कुछ खास दिनों के लिये प्रक्रिया टी शर्ट (जो कि पंच तत्वों के रंग हरा, नारंगी, नीला बैंगनी आदि रंगो में होती हैं) पहन कर जाना होता है। क्लास में जाने से पहले जूते मोज़े उतारकर निर्धारित जगह पर रखने होते हैं। क्लास में बच्चे सेमी सर्कल में चटाई पर बैठते हैं और किताबें लकडी की चौकी पर रखते हैं। एक क्लास में बस १७ बच्चे होते हैं। सप्ताह में दो बार कई क्लास साथ मिलकर पढते हैं। इन्हें वर्टिकल क्लास कहा जाता है। क्लास में भाषाएं (इंग्लिश, हिन्दी, कन्नड)पढायी जाती हैं। इन्हें भी रोचक तरीके से पढाया जाता है, रोल प्ले होते हैं जिनमें बच्चे भाग लेते हैं और पढाई उबाऊ न होकर एक मनोरंजन बन जाती है। मैथ की पढाई क्लास में न होकर मैथ लैब में होती है। जहां बीड्स, ऎबाकस जैसे इन्स्ट्रूमैंट्स के साथ खेल-खेल में बच्चे मैथ सीखते हैं।

साइंस,वैल्यू एजूकेशन, जीके आदि के लिये अन्य स्कूलों की तरह यहां पाठ्य पुस्तकें नहीं हैं। ये सब इन्हें प्रकृति की गोद में पंच भूतों (आकाष, जल, पृथ्वी, अग्नि, वायु) को संदर्भ में रख कर सिखाये जाते हैं। इन्हें थीमैटिक लर्निंग क्लास TLC कहा जाता है। सत्र के पहले दिन बच्चे प्लांटिग करते हैं। और फिर पूरे साल वो अपने पौधों की देखभाल करते हैं। टाइम टेबिल के हिसाब से डांस, पौटरी, पेंटिग, गेम्स आदि के पीरियड होते हैं। समय-समय पर बच्चे नेचर वाक पर जाते हैं। एक क्लास रिस्पांस्बिलिटी की भी होती है, जिसमें सब बच्चे मिल कर काम करते हैं, जैसे चटाई फोल्ड कर के रखना, चौकी जगह पर रखना, किताबें बांटना। बच्चों को सारी किताबें घर नहीं लानी होती, बस जिस विषय में होम्वर्क( ज्यादातर एक विषय या दो) हो वही किताब घर ले जानी होती है। इस तरह बस्ते का कोई बोझ ही नहीं होता।

टिफिन में जंक फूड (मैगी, बर्गर, चाकलेट) ले जाना मना है। टिफिन भी स्टील का होना चाहिये। लो वेस्ट जींस या बहुत फैशनेबल कपडे भी अलाउड नहीं हैं। बर्थडेज़ पर भी स्कूल में चाकलेट, केक या रिटर्न गिफ्ट देना मना है। ये दिन अलग तरह से बच्चों पर खास ध्यान देकर मनाया जाता है। बच्चे अपने दोस्तों को चिक्की या फल बांट सकते हैं, या लायब्रेरी को किताबें भी दे सकते हैं।

प्रोजैक्ट वर्क भी वास्तविक ज़िन्दगी से जुडे और बच्चों द्वारा चुने होते हैं। जैसे पिछले साल मिडिल स्कूल के बच्चों ने स्कूल के पास सूखती जा रही एक झील को बचाने का अभियान किया था, जिसमें वो सफल भी रहे। अपने अध्यापकों के नेतॄत्व में बच्चों ने झील की नाप-जोख की, सरकारी पदाधिकारियों से मिले, और जो भी उन्हें महत्वपूर्ण लगा, किया।

ऎसे ही और भी बहुत सी विशेषताओं के साथ ये स्कूल बच्चों को बहुत ही पसंद आता है। हमारी बेटियों ने ( कांती- 4th, वरम - play group) जब से ये स्कूल ज्वाइन किया है उनकी खुशी का पारावार नहीं है। कांती जो पहले हमेशा स्कूल से आने पर थकी रहती थी, अब हमेंशा चहकती होती है। अपने स्कूल के बारे में बताने को उसके पास इतना कुछ होता है कि उसकी बातें ही नहीं खत्म होतीं। और छोटी वरम को तो रात में भी स्कूल जाना होता है, और उसे प्रिया आंटी और लता आंटी (यहां टीचर को आंटी बुलाते हैं।) ही चाहिये होती हैं।

(इस पोस्ट में हमने काफी इंग्लिश शब्दों का प्रयोग किया है। पता नहीं क्यों शायद यही अब आम बोल चाल की भाषा सी बनती जा रही है। आस-पास भी हिन्दी बोलने वाले इतने कम हैं कि सोंचना पडता है कई शब्दों को हिन्दी में क्या लिखें। इसलिये बस जैसा बन पडा लिख दिया। अगर अच्छी हिन्दी में लिखते तो लिखना शायद टलता ही जाता , तो बस जैसा मन में आया लिखते गये।)

Wednesday, June 16, 2010

बहुत दिनों बाद.....

ज़िन्दगी फिर से अपनी बंधी हुयी रफ्तार से चलने लगी है। कई दिनों से मन हो रहा है कुछ लिखने का पर बीच में काफी लम्बा गैप सा आ गया है इसलिये कलम को सूझ नहीं रहा है कि कौन सा टूटा सिरा कहां से पकडे।
पिछले काफी दिनों से कुछ नहीं लिखा। कारण अनेक थे। पहले कम्प्यूटर खराब हो गया उसके बाद छुट्टियों में हैदराबाद चले गये। उसके बाद तो मसरूफियत का सिलसिला ऎसा चला कि अब थोडी फुरसत मिली है। पतिदेव के जाब बदलने की वजह से शहर के एक कोने से दूसरे कोने में शिफ्ट होना पडा। यूं तो बचपन से ही घर बदलना, नयी जगहों पर जाना हमें बहुत पसंद रहा है, पर बडे होने के बाद ही असली आटे दाल का भाव समझ में आता है। जगह बदलने के साथ सबसे पहली समस्या आती है बच्चों के स्कूल बदलने की। हमारी बडी बिटिया देहली पब्लिक स्कूल में पढती थी। यूं तो चाहें तो नई जगह पर भी डी.पी.एस. में ट्रांस्फर हो सकता था। पर हमें ये स्कूल पसंद नहीं था तो सोंचा नई जगह पर नये स्कूल की तलाश की जाय। लोगो से पूंछा, इंटरनेट पर भी ढूंढा। तो एक नये तरीके के स्कूलों के बारे में पता चला जो कि अन्कन्वेंशनल स्कूल कहलाते हैं| ऎसे स्कूल में पारम्परिक स्कूली पढाई के साथ बच्चे पूर्ण विकास के बारे में भी ध्यान दिया जाता है। हमने जे Krishnamurti के वैली स्कूल के बारे में तो सुना था और ये भी पता था कि यहां एड्मिशन बहुत ही मुश्किल से मिलता है। हमारे एक पारिवारिक मित्र ने बताया कि वैली स्कूल के पैटर्न पर ही एक और स्कूल है प्रक्रिया ग्रीन विज़डम स्कूल। हमने इस स्कूल के बारे में खोजबीन की। इत्त्फाक से ही इस स्कूळ में चौथी क्लास में एक ओपनिंग थी और हमारी बिटिया को उसमें एड्मिशन मिल गया। छोटी वाली को भी प्ले ग्रुप में उसी स्कूल में एडमिशन मिल गया।
स्कूल के बाद फिर शुरु हुई घर ढूंढने की जद्दोजहत। बहुत से घर देखे, किसी में कुछ पसंद आता था किसी में कुछ। कुछ हमें पसंद आता तो पतिदेव को नापसंद। हमारे पतिदेव को हमेशा ऊंचे फ्लोर पसंद आते हैं, और हमे धरती से जुडे रहना भाता है। खैर हम हमेशा कम्प्रोमाइज़ करने में यकीन रखते हैं। पहले रह रहे थे सातवें और आखिरी फ्लोर पर, और इस बार पसंद आया १४वां फ्लोर। पर अपार्टमेंट ऎसा था कि देखते ही पसंद आ गया। शोभा के अपार्टमेंट की यही खासियत है कि फ्लोर प्लान और कंस्ट्रक्शन इतना बढिया होता है कि आप पहली बार में ही दिल हार बैठते हैं।
खैर फिर शुरु हुआ पैकिंग और मूविंग का सिलसिला। अपने पिछले मूविंग अनुभव (यूएस से बैंगलोर)से कम्पेयर करें तो ये मूविंग बहुत आराम से निबट गयी। अब सबकुछ एक ढर्रे पर आ गया है। अपार्टमेंट में सबकुछ सैट हो गया है। कामवाली भी मिल गयी है। बच्चों ने स्कूल जाना शुरु कर दिया है। ब्राड्बैंड कनैक्शन भी आ गया है। तो अब बस हम हैं और हमारा डैस्कटाप। इतने सारे ब्लाग्स को फालो कर रहे हैं, दो दिन न पढो तो गूगल रीडर पर संख्या बढती जाती है। और हम तो करीब महीना भर से कुछ नहीं पढ पाये थे। करीब ८०० पोस्ट थीं गूगल रीडर पर पढने के लिये। पिछले तीन दिन से उन्हें ही पढने में लगे थे। आज जब सब पढ कर खत्म किया तो यूं ही कुछ लिखने का मन हो आया और बस...

Wednesday, February 10, 2010

एक गज़ल



राहें हज़ार हैं यहां, पर मंज़िलें कहां?
तुमसे मिलाये जो हमें, वो रहगुज़र कहां?

मौसम वस्ल के आये, आकर चले गये।
नसीब जिसका हो खिज़ां, उसको बहार कहां।

मिलते ही हमसे कहते हो, 'कहां हो आजकल?'
हम तो हमेशा हैं यहीं, रहते हो तुम कहां?

उसकी तलाश में भटके हर सू यहां वहां,
ढूंढा न अपने दिल में ढूंढा कहां कहां।

जिसकी तलाश में छोडा दुनिया औ' दीन सब,
अलहदा है वो सभी से उसकी मिसाल कहां।

Saturday, February 06, 2010

"१०८४वें की मां"


आज महाश्वेता देवी का उपन्यास "१०८४वें की मां" पढा। मन को कहीं गहरे तक छू गया। ये कहानी है सुजाता चैटर्जी की जो एक साधारण महिला है,एक बैंक में काम करती है। उसका जीवन उसके परिवार और कर्तव्यों के इर्द-गिर्द घूमता रहता है। उसका सबसे छोटा बेटा व्रती नक्सलवादियों के संग में पडकर मारा जाता है। उसकी लाश का नम्बर १०८४ है। और सुजाता बन जाती है १०८४वें की मां!
सुजाता अपने बेटे के जीवनकाल में उसके नक्सलवादियों से सम्बन्ध के बारे में बिल्कुल अनभिग्य रहती है। पूरा उपन्यास एक दिन पर ही आधारित है जो कि व्रती का जन्मदिवस भी है और म्रत्यु दिवस भी। कुल मिलाकर पूरा उपन्यास बहुत ही अच्छा लगा।
इस उपन्यास पर गोविन्द निलहानी ने "हजार चौरासी की मां" नाम से एक मूवी भी बनायी है। जब मौका लगे तो ये मूवी भी देखना है।

Tuesday, February 02, 2010

प्रीत के रंग

सुध-बुध अपनी खो बैठूं मैं
कोई ऎसा गीत सुनाओ।
अपना रंग डाल दो मुझ पर,
या फिर रंग में मेरे तुम रंग जाओ।

क्या हुआ जो मैं राधा नहीं हूं,
तुम तो मेरे कान्हा हो।
अपना मुझे बना लो प्रियतम,
या फिर मेरे तुम बन जाओ।

सुख दुख के सब रंग मिले तो
बनी ओढनी जीवन की।
अपने इस संगम का प्रियतम
क्या है भेद तुम्ही समझाओ

तुम हो गुम अपनी दुनिया में,
और मेरी हो दुनिया तुम।
तज कर एक दिन काम सभी तुम,
संग मेरे एक सांझ बिताओ।

रंगो की जब बात चली तो,
क्या गोरा और क्या काला।
रंग लहू का एक है सबके
चाहें किसी भी देश में जाओ।

Sunday, January 24, 2010

कहानी नीयति अंतिम भाग


पहला भाग
दूसरा भाग

शादी के बाद हम यू एस चले गये और प्रियंका से बातों का सिलसिला धीरे-धीरे कम होता गया। मैं भी अपने घर संसार में व्यस्त हो गयी। एक बिटिया मेरी गोद में आ गई और वो भी एक बेटे की मां बन चुकी थी। उसने अपने बेटे का नाम प्रियांश रखा था। फोन पर ही उसने बताया था," सोनिया मैंने हमेशा से सोंचा था कि मेरा बेटा होगा तो उसका नाम प्रियांश रखेंगे। हम दोनों का नाम ही इस में समा जाता है। प्रियंका और अंश का बेटा 'प्रियांश'।" उसकी आवाज़ एक बार फिर पहले जैसी चहकी हुई थी। मां होने के गौरव से वो भरी-पूरी सी महसूस हो रही थी। मैंने ईश्वर को धन्यवाद दिया और दुआ की कि मेरी सखी यूं ही हमेशा खुश रहे।
पर सब-कुछ ठीक समझना शायद हमारा भ्रम था। दो साल के बाद जब मैं इंडिया आयी तो उसे फोन किया। पर फोन किसी अजनबी लडकी ने उठाया। प्रियंका के बारे में पूंछने पर वो बोली कि यहां कोई प्रियंका नहीं रहती। हमें बहुत ताज्जुब हुआ। कई बार फोन किया पर हमेशा वही जवाब। भाई से बात कर रहे थे तो उसे जाने किस पुरानी डायरी में प्रियंका की मम्मी का नम्बर मिल गया। मैंने उस नम्बर पर फोन किया तो उसकी मम्मी से बात हुई। बोलीं, "प्रियंका तो अब अपने बेटे के साथ यहीं रहती है। हमें तो धोका हो गया बेटा। प्रियंका की तो ज़िन्दगी बर्बाद हो गई। वो लोग पैसे के लालची निकले। न कोई घर था उनका, दुकान भी गिरवी थी। और लडका था शराबी एय्याश। हमारी प्रियंका को घर से निकाल दिया।" ये सब अचानक से सुनकर मेरेतो पैरों तले से जैसे जमीन खिसक गई। प्रियंका ने तो कभी मुझे गुमान भी नहीं होने दिया कि वो किसी ऎसे दौर से गुज़र रही है। फोन पर अभी भी उसकी मम्मी अनर्गल प्रलाप जारी था। ".....तुम कैसी हो सोनिया! तुम्हारा पति तुम्हारा ध्यान तो रखता है। ससुराल में सब कैसे हैं? तुम्हारे एक बिटिया है न?" उनके सवालों के जवाब में ये कहना कि मेरे पति अच्छे हैं। मेरा ख्याल रखते हैं। ससुराल भी अच्छी है; मुझे अंदर किसी गहरे दर्द से भेदे दे रहा था। मेरी सबसे प्यारी सखी किस दर्द से गुजर रही है और मुझे कुछ पता भी नहीं। हमने कहा, "आंटी प्रिया से बात कर सकते हैं?" तो आंटी बोलीं, "वो तो जाब करती है बेटा। उसका एकनामिक्स में एम ए और कम्प्यूटर कोर्स काम आया। उसी की वजह से उसे एक एकाउंटिंग फर्म में नौकरी मिल गई है। उसका मोबाइल नम्बर देते हैं। बात कर लो।"
उसका नम्बर हांथ में लिये कितनी देर हम यूं ही बैठे रह गये। हिम्मत ही नहीं हो रही थी उससे बात करने की। उसके लिये की गई भविष्यवाणी सच हो गई थी और हम अब भी उस पर विश्वास नही कर पा रहे थे। शाम को उसका नम्बर मिलाया तो उसने ही फोन उठाया। मेरी आवाज़ सुनकर उसके आंसुओ का बांध टूट गया, "बोली तुम्हें सब पता चल गया। सोंचा था कि तुम्हें अपने दु:ख से दु:खी नहीं करेंगे। मेरे साथ ऎसा क्यों हुआ सोनिया? मैने तो पूरी शिद्दत से अंश को प्यार किया था। उसकी हर चीज़ को अपना माना था। उसकी दुकान नहीं चलती थी तो मैंने कम पैसे में ही गुज़ारा करना सीख लिया था। मेरे पापा ने उसे दस लाख रुपये नया बिज़नेस डालने के लिये दिये। पर उसने सब पैसा शेयर्स और शराब में उडा दिया। उसने हमें कभी चाहा ही नही। वो तो किसी और से शादी करना चाहता था। पर दहेज के लिये उसे मुझ से शादी करनी पडी। शुरु में उसकी मम्मी ने सब ढंकने की कोशिश की पर बाद में धीरे-धीरे सब खुलता गया। जबतक मेरे पापा पैसे देते रहे मेरी सास का व्यवहार थोडा ठीक था पर मेरे पापा भी कब तक पैसे देते। उसके बाद तो उन लोगों ने हमें खाने तक के लिये तरसा दिया। प्रैग्नैन्सी में लोगों को नई-नई चीज़े खाने की क्रेविंग होती है। पर मुझे तो पेट भर खाना भी नसीब नहीं था। मेरी सास कहतीं कि दिन में अकेले अपने लिये खाना बनाने की क्या जरूरत है। रात का बचा हुआ खा लो। और रात में सिर्फ नपातुला खाना बनाने की इजाजत थी। पूरा दिन मैं भूखी रहती। प्रियांश के होने के बाद भी अंश को अपने बेटे की कोई खुशी नहीं हुई। बल्कि एक बार तो कह दिया कि प्रियांश नाम रख देने से क्या ये मेरा अंश हो जायेगा। प्रियांश भी मेरी सी किस्मत ले कर आया था। उसकी मां को कभी इतना खाने को नहीं मिला कि उसे दूध होता और बाप ने कभी एक दूध का डिब्बा ला कर नहीं दिया। डिलीवरी के वक्त मम्मी- पापा आये तो जो भी जरूरत का सामान था लाकर रख गये। दो महीने होते होते सब सामान खत्म हो गया। जब अंश से दूध का डिब्बा लाने को कहा तो उसने शराब के नशे में चीखना चिल्लाना शुरु कर दिया। तुमने तो देखा था वो अंधेरा घर। रात को ग्यारह बजे वहां उसकी चीखें और मेरे आंसू सुनने वाला कौन था। उस दिन शायद मेरी किस्मत से दुकान में काम करने वाला एक छोटा सा लडका बाहर गैलरी में सोया हुआ था। आवाज़े सुनकर वो अंदर आ गया। और छुपकर सब देखने लगा। तबतक अंश ने मुझे मारना शुरु कर दिया था। कहते हुये भी शर्म आती है कि शराब के नशे में उसने पहले भी कई बार मुझ पर हांथ उठाया था। इसी बीच प्रियांश ने भी भूख से रोना शुरु कर दिया था। मम्मी जी ने आकर खीचकर अंश को अंदर कमरे में ले जाकर डाल दिया। और खुद भी सोने चली गईं। मुझ पर और प्रियांश पर किसी को कोई तरस नहीं आया। पर उस दिन शायद वो छोटा सा लडका मेरे लिये फरिश्ता बन कर आया था। उसने मुझे अंदर से लाकर पानी पिलाया। सहारा देकर वहीं पास पडी चारपाई पर लिटाया। प्रियांश को उठाकर मेरे पास लिटाया। मेरे आंसू पोंछते हुये उसके भी आंसू बह रहे थे। आधी रात में पता नहीं कौन सी जगह से वो थोडा सा दूध लेकर आया। खुद ही बोतल में डालकर उसने प्रियांश को अपनी गोद में डालकर दूध पिलाया।
मेरी सारी शक्ति उस दिन समाप्त हो चुकी थी। ऎसे ही बाहर ओस में चारपाई पर पडे हुये सुबह का धुधंलका भी आ चुका था। पर मेरी ज़िन्दगी में शायद कोई सुबह नहीं थी। फिर भी जीना तो था ही, अपने लिये न सही तो प्रियांश के लीये। यही सोंचकर मैंने एक पेपर पर छोटू को अपने घर का नम्बर देकर कहा कि वो पीसीओ से घर फोन करके कहे को वो लोग प्रियांश के लिये दूध दे जायें। खुद भूखा रहा जा सकता है, पर जिसे आपने नौ महीने पेट में रखकर जन्म दिया हो उसे भूखा देखना बर्दाश्त नहीं हुआ।
छोटू ने जब घर फोन किया तो भैया ने फोन उठाया। उन्होंने सारी बातें छोटू से पूंछ ली। उनका जवान खून अपनी बहन की ये दुर्दशा बर्दाश्त नहीं कर सका और वो तुरंत गाडी लेकर पापा के साथ आये। जब वो लोग घर पहुंचे तो अंश का नशा उतरा नही था। मैंने कभी सोंचा भी नहीं था कि मेरे जीवन की ये परिणति होगी। पापा और भाई मुझे प्रियांश के साथ घर ले आये। जाते-जाते अंश ने कह दिया कि अब कभी वापस लौट कर मत आना।
घर जाकर एक हफ्ता मैं और प्रियांश दोनों बीमार पडे रहे। कुछ सोंचने समझने की भी ताकत नहीं रही थी। इधर मम्मी भी समझा रहीं थीं कि वो तुम्हारा घर है, तुम्हारा पति है, तुम्हारे बच्चे का बाप है। तुम्हें ज़िन्दगी तो उसी के साथ काटनी है। कुछ दिनों में वो सुधर जायेगा। मैं कुछ भी निर्णय लेने में असमर्थ थी। कि एक दिन डाक से एक पत्र आया मेरे नाम। पता नहीं क्यों कुछ गलत का अंदेशा हुआ। पत्र खोलकर पढा तो वो डायवोर्स के पेपर्स थे। मेरे पैरों तले से जमीन खिसक गई। ये तो मैंने कभी नहीं चाहा था। घर में भैया और पापा तो चुप थे पर मम्मी बोले जा रहीं थी कि ऎसे कैसे डाइवोर्स दे सकता है। मजाक है क्या। और बस ऎसे ही मेरी जिन्दगी एक मजाक बन गई। दो साल से कोर्ट में केस चल रहा है। ये तो अच्छा हुअ कि मेरी पढाई काम आई। दिनभर जाब पर वक्त कट जाता है। पर शाम को घर जाकर वक्त काटे नहीं कटता। प्रियांश के साथ वक्त गुज़ारने की कोशिश करते हैं पर शाम को भैया को अपने बच्चों के साथ खॆलता देखता हैं तो उसे भी अपने पापा चाहिये होते हैं। ढाई साल का बच्चा जब अपने मामा को पापा बुलाता है तो ऊसकी नानी उसे समझते हुये नहीं थकतीं कि वो तेरे पापा नहीं हैं वो तेरे मामा हैं। मुझे पता नहीं मेरी ज़िन्दगी का क्या होगा।" एक ही सांस में वो अपने पिछले कई सालों के दर्द को बयान कर गई। हम उससे बस यही कह पाये, "अच्छा हुआ तुम उसे छोड कर आ गई। अब अपनी ज़िन्दगी नये सिरे से शुरु करना।" इस पर वो बोली
" तुम तो विदेश में रहती हो तुम्हें यहां का सिस्टम नहीं पता है। पता नहीं कब मेरे केस का फैसला होगा। हमने तो अपनी किस्मत को स्वीकार कर लिया था। जब डाइवोर्स के पेपर आये थे तब मैं अंश के पास जाकर बहुत रोई थी कि मुझे अपने घर में पडा रहने दे। मैं उससे कभी कुछ नहीं मांगूगी। पर वो नहीं माना बोला उसे मेरे साथ रहना ही नहीं है। तुम्हें नहीं पता शादी के बाद वापस अपने घर में रहना भी पराया लगता है और तलाकशुदा औरत सभी को अवेलेबिल दिखती है।"
मेरे पास उसकी बात का कोई जवाब नहीं था। कभी नहीं सोंचा था कि हमारे बीच ऎसी बातें होंगी। बात का रुख मोडते हुये उसने कहा, "और तुम अपनी बताओ? तुम्हारे पति तो बहुत अच्छे हैं न। बताओ न अच्छे लोग कैसे होते हैं। कभी देखा-सुना नहीं । अच्छे लोग शायद कहानियों में या फिल्न्मों में ही होते हैं। अच्छा! तुम्हारे पति बेटी को प्यार करते हैं न। शायद अगर मेरे भी बेटी होती तो मेरी किस्मत अच्छी होती। मैंने जितने भी घरों में पहले बेटी का जन्म देखा है उनके घर में हमेशा अच्छी किस्मत देखी है। अंश ने तो कभी प्रियांश को गोद में भी नहीं उठाया। उसका तो नाम ही जैसे उसके लिये अभिशाप हो गया है।" उसकी बातों को बस हां-हूं में और इधर-उधर की बातों में टालते गये। चाह कर भी उसे नहीं बता पाये कि मेरे पति की तो जान ही मेरी बिटिया में बसती है। और वो मेरा पल पल पर ख्याल करते हैं अच्छे लोग सिर्फ कहानियों या फिल्मों में नहीं होते। इसी दुनिया के होते हैं। बस अपनी अपनी किस्मत का फर्क है। मुझे तो अभी तक बुरे लोग ही कहानियों या फिल्मों की दुनिया के लगते थे। पर मैं कुछ भी नहीं कह पायी।
यू एस वापस आने के बाद कभी-कभी प्रियंका से बात होती रही। वो अक्सर मुझसे कहती मुझे अपने पास बुला लो। पर मैं क्या कर सकती थी उसके लिये सिर्फ दुआ करने के सिवा।

इतनी देर तक यही सब सोंचते हुये पता भी नहीं चला कि शाम हो गई थी। मेरी बिटिया शोना कब आकर मेरे पास सो गई थी पता ही नहीं चला। उफ ये इस वक्त सो गई, अब आधी रात को उठकर जागरण करेगी। जेटलाग की नींद होती ही ऎसी है। उसे उठाते हुये मन में ख्याल आया कि अब तो प्रियांश भी पांच साल का हो गया होगा। शोना को ऎसे ही सोने देकर मैं टेरेस पर आ गयी और फिर से प्रियंका को फोन मिलाया। इस बार वही चिर-परिचित आवाज़ थी, " हाय सोनिया! कैसी हो? कब आईं?"

"बस दो दिन हुये। तुम कैसी हो केस का क्या हुआ?"
"केस का क्या होना है? शायद कल फैसला हो जाय। पर इस बार फिर मेरी किस्मत मेरे साथ खेल रही है।
"क्या हुआ? बताओ तो सही।"
"प्रियांश पांच साल का हो गया है। पांच साल के बाद मेल चाइल्ड की कस्टडी पिता के पास रहती है।मैं चाहूं तो उसे अपने पास रख सकती हूं। पर मेरी मम्मी मेरे पीछे पडी हैं कि प्रियांश को अंश के पास भेज दो उसे तुम्हें कोई मुआवज़ा देने की भी जरूरत नहीं है। अंश भी सिर्फ इसलिये इस बात पर राज़ी हो गया है कि उसे कोई मुआवज़ा नहीं देना पडेगा। ये लोग मेरी दूसरी शादी करवाना चाहते हैं। और पांच साल के बच्चे के साथ शादी होना मुश्किल है। इसीलिये ये लोग उसे छोडने को कह रहे हैं। पर उसके बाद मैं प्रियांश से कभी नहीं मिल पाउंगी। ये उन लोगों की शर्त है। सोनिया! मुझे कुछ समझ नहीं आता क्या करूं? प्रियांश तो अंश को जानता तक नहीं है। अपने नन्हें-नन्हे हांथो से सदा मेरे आंसू पोंछता रहता है। उसके साथ मेरा खून का ही नहीं दर्द का भी रिश्ता है। और दर्द के रिश्ते ज्यादा अनमोल होते हैं ये तो मैंने अपनी ज़िन्दगी के अनुभव से जाना है। शादी मैं भी करना चाहती हूं। ऊब गई हूं इस पराये से घर में अपनों के बीच रहते रहते। ये लोग अपनी खुशियां भी मेरे दु:ख को देखकर खुल कर नहीं मना पाते। मैं एक बेटी न होकर सजा बन गई हूं। क्या करूं तुम्हीं बताओ?" मेरे पास उसके सवालों का हमेशा की तरह कोई जवाब नहीं था। बस उसे समझा दिया, "कि तुम सोंच-समझ कर कोई फैसला करना। ये तुम्हारी ज़िन्दगी है।"
"मुझे चाहिये ही नहीं ऎसी ज़िन्दगी।"
"उदास मत हो! प्रिया कोई न कोई तुम्हें भी ज़रूर मिलेगा जो तुम्हारा दामन भी खुशियों से भर देगा।
"मुझॆ ज़िन्दगी से कोई उम्मीद नहीं। बस आदमी नाम का ऎसा कोई सहारा मिल जाय जो मुझे मेरे प्रियांश के साथ स्वीकार कर ले।"
"ऎसा होगा प्रिया। तुम उम्मीद मत छोडो"
"पर अभी तो पहले मुझे अपने प्रियांश के बारे में कोई फैसला लेना है। कोर्ट ने कल तक का वक्त दिया है।"
"....."
"मैं क्या करूं सोनिया?"
"मुझे भी कुछ समझ नहीं आ रहा है। बस इतना कह सकती हूं कि मेरी सारी दुआयें तुम्हारे साथ हैं।"

ये कह कर हमने फोन रख दिया। उसके बाद भाई की शादी की भागदौड में वक्त ही नहीं मिला बात करने का। इक हफ्ते बाद वापस यू एस आ गये। रोज़ ही प्रिया की याद आती। बात करने का मन भी करता पर फोन मिलाने की हिम्मत नहीं होती। पता नहीं प्रियंका ने क्या फैसला लिया हो। या ज़िन्दगी ने उसका क्या फैसला किया हो। पता नहीं प्रियांश उसके पास था या फिर उसने उसे भी हार दिया था। क्या पता उसे कोई ऎसा मिल गया हो जिसने उसे प्रियांश के साथ अपना लिया हो। काश ऎसा हो जाता। यूं ही कशमकश उधेड्बुन में तीन महीने बीत गये।
आज हिम्मत करके मैंने उसके मोबाइल का नम्बर डायल कर ही दिया। उधर से आवाज़ आई, " दिस टेलीफोन नम्बर डज़ नाट एग्ज़िस्ट।"
शायद मैंने फोन करने में देर कर दी थी। पिछले कई सालों से उसके मोबाइल पर ही बात हो रही थी। उसके घर का या कोई और नंबर हमने सेव नहीं किया था। सोंचा नहीं था कि कभी ऎसा होगा कि हम चाहते हुये भी उससे बात नहीं कर पायें गे। बस अब तो यही उम्मीद है कि वो जहां भी हो खुश हो। मेरी सारी दुआयें उस लडकी के नाम हैं जिसने कभी किसी का बुरा नहीं किया। बस सभी से प्यार किया, पर जिसे कभी प्यार नहीं मिला।

Saturday, January 23, 2010

कहानी नीयति भाग २


पहला भाग
एम ए फाइनल इयर में दशहरे की छुट्टियों में वो अपने मामा के बेटे की शादी में मैसूर गई। वहां से लौटकर उसके रंग कुछ बदले से लगे। लगा पहले से ही बेहद खूबसूरत ये लडकी कुछ और भी निखर गई थी। पर कुछ चुप-चाप सी भी लगी। मुझसे वो कुछ छपाना चाहे तो भी छिपा नहीं पाती थी। एक दिन जब वक्त मिला बातों का तो पता चला मैसूर में अपने मामा के घर उसने अपने दिल पर किसी की दस्तक को महसूस किया था। पर वो थी एक मजबूत शख्सियत की मालिक। उसके दिल को चाहें वो अच्छा लगा था। पर उसने अपनी जुबां से कभी कुछ नहीं कहा न उस शख्स ही कुछ महसूस होने दिया। और शायद ये उसके हक में ही हुआ। क्योंकि वो शख्स जिसने उसके कभी किसी के लिये न धडकने वाले मासूम से दिल को धडका दिया था उसके लायक था ही नहीं। वो तो बस उसके दोस्तों से लगी एक शर्त थी। प्रियंका ने उसे एक दिन बात करते सुन लिया था "ये लडकी तो किसी दूसरी दुनिया की ही लगती है। इसे पिघलाना मेरे बस का काम नहीं। भई मैं शर्त हार गया।" ये सुन कर प्रियंका को धक्का जरूर लगा पर वो टूटी नहीं। उसका दिल जरूर टूटा पर उसका किरदार, उसका स्वाभिमान सलामत था। बस ऎसे ही दिन गुज़रते रहे और हम दोनों ने एम ए के साथ-साथ कम्पयूटर कोर्स भी कर लिया।

पढाई खत्म होते ही हम अपने पैत्रक शहर बिजनौर आ गये। खतों और फोन के जरिये हमारी दोस्ती कायम थी। एकदिन फोन पर उसकी चहकती हुई आवाज़ ने बताया कि उसकी शादी तय हो गई है। पंजाबियों में शायद लडके वाले लडकी मांगते हैं। शायद ऎसा ही उसकी बातों से हम समझ पाये कि उसकी दीदी की ससुराल की तरफ से किसी ने रिश्ता भेजा था। लडके का अपना बिजनेस है। लडके की मां किसी स्कूल में पढाती हैं। एक बहन की शादी हो चुकी है। घर में और कोई नहीं है। प्रियंका की मम्मी भी बहुत खुश थीं कि चलो छोटा परिवार है। कोई जिम्मेदारी नहीं है। लडके का जमा जमाया बिजनेस है।
प्रियंका की तो खुशी का कोई ठिकाना ही नहीं था। रोज़ ही मुझे फोन करती। कहती, "अब तो प्यार कर सकती हूं न सोनिया? सच कहूं मुझे तो अंश से प्यार हो ही गया है। इतनी डैशिंग पर्सनौलिटी है अंश की कि क्या बताऊ। मैं तो उनके सामने कुछ भी नहीं हूं। पर जाने क्यों सगाई के बाद भी उन्होंने एक फोन तक नहीं किया।" उसकी सब बातें सुनते हुये मन में न जाने कहां से एक लाइन गूंज गई, "इस प्यारी सी लडकी को प्यार में हमेशा धोखा मिलेगा।" मन ने अपने आप को धिक्कारा कि मैं क्या उलटा सीधा सोंचने बैठ गई। फिर कुछ ही महीनों में उसकी शादी हो गई। प्रियंका के इतना बुलाने पर भी मैं उसकी शादी में नहीं ही जा पायी। बीच-बीच में उससे बात होती रहती। पर पता नही क्यों उसकी बातों में अब वो जोश नहीं होता। कभी कहती सास सामने बैठी हैं। कभी अंश सो रहे हैं। जोर से बात करूंगी तो जाग जायेंगे।
फिर मेरी भी शादी तय हो गई। शादी दिल्ली से होनी थी। मैंने पापा को पहले ही मना लिया कि जाते हुये कुछ देर मेरठ जरूर रुकेंगे। सोंचा था उसके घर जाकर उसे सर्प्राइज़ देंगे। उसके दिये पते पर पहुंचे तो अजीब सा लगा। ढेर सारी लोहे और सीमेंट की दुकानों के बीच एक अंधेरी सी गली का पता था। पहले बाहर से खडे होकर ही आवाज़ लगाई। फिर जब कोई जवाब नहीं आई तो भाई को साथ लेकर अंदर गये। कई बार आवाज़ लगाने पर प्रिया बाहर आई। मुझे देख कर कितना खुश हो गई। हम दोनों जब एक-दूसरे से गले मिले तो दोनों की आखों में आंसू थे। पर प्रियंका बिल्कुल ही बदली हुई लगी।उसके लंबे काले बाल कंधे तक रह गये थे। और बहुत ही दुबली दिख रही थी। उस दो कमरे के छोटे से मकान में वो बिल्कुल अजनबी सी दिख रही थी। मैंने पूछ ही लिया, "तुम तो कह रहीं थी कि तुम्हारा बडा सा बंगला है सिविल लाइन्स में।" पूंछने के बाद मुझे अपने ऊपर पछतावा हुआ। पर तब तक तीर कमान से निकल चुका था जिसने प्रियंका के चेहरे को और मुरझा दिया था। बोली, "है बंगला, पर उसे किराये पर उठा दिया है। मम्मी जी का स्कूल यहीं से पास पडता है और इनकी दुकान भी बाहर है।" मन को एक धक्का सा लगा कि उसके डैशिंग अंश की लोहे की दुकान है।
वो हमें अपने कमरे में ही ले गई। जहां उसके पति देव दिन के ग्यारह बजे सोये पडे थे। उसने धीरे से उन्हें जगाया औए हम लोगों का परिचय कराया। एक हल्की सी हैलो कहकर वो बाहर चले गये। उसके कमरे में उसकी झलक कही भी दिखाई नहीं दी। और उस अजनबी माहौल में मैं उससे कुछ ज्यादा बात भी नहीं कर पायी। फिर भाई भी तो साथ ही बैठा था। बातों से पता चला कि उसे जाइंडिस हो गया था। काफी समय बीमार रही उसी बीमारी में उसके सब बाल झड गये। बोली खाना खाकर जाना। पर मन नहीं माना और रुकने का। हम लोग जब चलने ले गे तो बोली रुको अंश छोड देंगे। पर उसके अंश जब दस मिनट तक बाहर नहीं निकले तो हम लोग वापस चले आये। उसने मुझे एक बिंदी का पत्ता और एक लिपिस्टिक देकर कहा "पहले पता होता कि तुम आ रही हो तो तुम्हारे लिये कुछ अच्छा सा लेकर रखते। तुम्हारी शादी का गिफ्ट उधार रहा।" मैं भरे मन से वापस आ गयी। लौटते हुये भाई ने कहा "दाल में कुछ काला लगता है।" तो हमने उसे डांट दिया। कहा "तुम्हें तो सब दाल काली दिखती हैं, कलर ब्लाइंड हो" कहने को तो हमने उसे कह दिया पर हमें भी सब-कुछ ठीक नहीं लगा। पर अपनी शादी के उत्साह में उसकी चिन्ता कुछ दब सी गई।

Friday, January 22, 2010

कहानी नीयति भाग १


"हैलो आंटी! मैं सोनिया बोल रही हूं। प्रियंका है क्या?" अपनी प्यारी सखी से बात करने की बैचैनी मेरे स्वर में साफ झलक रही थी।
उधर से आंटी की बुझी हुई आवाज़ आई, "सोनिया कैसी हो बेटा? बहुत दिनों बाद फोन किया। प्रियंका तो कोर्ट गई है। आज उसके केस की तारीख है। तुम्हें तो सब पता ही है।"
मुझे उनकी आवाज़ सुनकर एक झटका सा लगा। और अपने आप पर ग्लानि भी हुई कि मैं सचमुच करीब एक साल के बाद फोन कर रहे थी प्रियंका को।
उधर से आंटी की फिर से आवाज़ आई "क्या भारत आई हुई हो? वक्त मिले तो मेरठ आओ। तुम्ही कुछ समझाओ प्रियंका को।" मन हुआ कि सब कुछ पूछे आंटी से कि क्या हुआ पिछले एक साल में। प्रियंका के केस का क्या हुआ। और उसे समझाना क्या है। पर जाने क्यों आंटी से ज्यादा बात करने का मन नहीं हुआ। पता था वो बात कम करेंगी और प्रियंका की किस्मत को कोसेंगी ज्यादा और साथ साथ मेरी किस्मत के गुणगान करती जायेंगी।
यही सोंच कर मैंने बात ज्यादा आगे न बढातए हुये कहा। "हां आंटी दो दिन हुये आये हुये। बस एक हफ्ते के लिये आये हैं। भाई की शादी है। कल फिर से फोन करेंगे प्रियंका से बात करने के लिये। ये कह कर मैं ने फोन रख दिया। पर मन प्रिया में ही उलझा रहा।

घर में शादी की गहमा-गहमी होते हुये भी मन किसी काम में नहीं लगा। मन सालों पहले की हमारी दोस्ती की यादों में गोते लगाने लगा। प्रियंका और मेरी दोस्ती ग्रेज़ुयेशन में हुई थी। वो मेरे घर के पास ही रहती थी। फिर भी इंटर कालेज अलग-अलग होने के कारण हम लोग पहले एक दूसरे को नहीं जानते थे। पर बी ए में साथ आने जाने की वजह से हम जल्दी ही गहरे दोस्त बन गये थे। मेरे और उसके सब्जैक्ट भी लगभग एक से ही थे। मेरे इतिहास, इंग्लिश और पालिटिकल साइंस और उसके इतिहास, इंग्लिश और इक्नोमिक्स।
सुबह सबसे पहले इतिहास के पीरियड के लिये हम लोग साथ घर से साइकल पर निकलते। बातें करते हुये रास्ते का पता ही नहीं चलता था। फिर फ्री पीरियड में हम दोनों साथ कैटीन में जा बैठते।
उसके घने काले बाल, गोरा रंग, बात करने का धीमा लहजा, हंसते हुये गालों पर पडते डिम्पल सब उसे एक बेहद आकर्षक और खास बना देते थे। लडके तो थे ही उसके व्यक्तित्व से प्रभावित, लडकियां भी उससे बात करने और दोस्ती करने के बहाने खोजा करती थीं। पर वो थी सबसे अलग-थलग। एकदम सीधी-साधी। उसे ज्यादा दोस्त बनाना पसंद ही नहीं था। बात सबसे करती पर दोस्तों में सिर्फ मुझे गिनती थी। अपनी सब बातें हमें बताये बिना उसे चैन नहीं मिलता था। पर मेरे उसके अलावा भी और बहुत से दोस्त थे। अगर मैं कभी किसी और के साथ बात करने में लग जाती तो वो बस मायूस सी हो जाती पर शिकायत कभी नहीं करती। जलना या किसी की बुराई करना तो मानों उसके स्वभाव में ही नही था। पढने में भी बहुत अच्छी थी। इतिहास और इक्नामिक्स जैसे विषयों के साथ भी उसके फर्स्ट क्लास मार्क्स बने हुये थे।
फर्स्ट ईयर खत्म होने पर छुटिट्यों में हमारा एक दूसरे के घर आना-जाना बढ गया, और दोस्ती भी कुछ और गहरी हो गई। मेरे किराये के घर में तो हमें जगह नहीं मिलती थी बतियाने के लिये। इसलिए हम लोग ज्यादातर उसके घर में मिलते। उसका कमरा उसी की रुचि के अनुरूप बहुत ही सादा संवारा हुआ पर बहुत ही सुकून देने वाला था। वो कभी हमसे आइल पेंटिग सीखती कभी क्छ कढाई करना। बहुत ही जल्दी सबकुछ सीख जाती।
उसकी मम्मी एक बुटीक चलातीं थी और मेरी कलात्मकता से बहुत प्रभावित रहतीं थी। उनमें और प्रियंका में पर बहुत अंतर था। वो थीं पूरी बिजनेस माइंडेड और प्रियंका को बनावट या झूंठ कहीं छू कर भी नहीं गया था। वो अपने बडे-भाई और बहन से बिल्कुल अलग थी। एक दिन आंटी ने यूं ही मजाक में कहा था, "सोनिया! तू पंजाबी होती तो अपने शेखर की शादी तुझसे ही कर देती। मेरे बुटीक को कोई संभालने वाला मिल जाता।" आंटी की बात मुझे बहुत बुरी लगी पर क्या जवाब देते। तभी देखा सामने से से शेखर भइया जा रहे हैं। उनकी मुस्कुराहट से साफ पता चल रहा था कि उन्होंने आंटी की बात सुन ली है।
प्रियंका को भी ये सब अच्छा नहीं लगा। बोली, "मम्मी क्या फालतू की बात करती रहती हो।" और हम उठ कर उसके कमरे में आ गये। उसके बाद से मेरा उसके घर जाना कम हो गया। वो खुद ही मुझे न बुलाकर मेरे घर आ जाती।
कालेज खुलने पर तो बस पूरा दिन साथ ही बीतता। पता ही नहीं चला कब वक्त पंख लगाकर उड गया और हम लोग ग्रेजुयेट हो गये। मैंने इतिहास में एम ए के लिये दूसरे कालेज में एड्मिशन लिया और प्रियंका ने उसी कालेज में इक्नामिक्स में एम ए की पढाई जारी रखी। हमारी दोस्ती पहले के जैसी ही कायम थी। इसी बीच उसकी बहन की शादी तय हो गई। हमने पंजाबी शादी की हर रस्म में बढ चढ कर भाग लिया। कितने सुहाने दिन थे वो पूरी दुनिया अपनी मुठ्ठी में लगती थी।
प्रियंका की दीदी की शादी के कुछ दिन बाद ही वो किसी काम से मेरे घर आई थी। मेरा मौसेरा भाई भी उस दिन आया हुआ था जिसे हांथ देखना आता था। उसकी बताई कोई बात कभी गलत नहीं निकलती थी। प्रियंका को मैंने उसके बारे में पहले भी बताया हुआ था। उस दिन हमेशा अजनबियों के सामने गम्भीर बनी रहने वाली प्रियंका मेरे पीछे पड गई कि आज मेरा हांथ भी दिखवा दो। और उसका हांथ देखकर हमेशा मुंह पर ही अच्छा बुरा बोल देने वाले मेरे भाई ने चुप्पी साध ली। बहुत पूंछने पर भी उसने प्रियंका के सामने कुछ नहीं कहा। बाद में उसके जाने के बाद बोला, "इस प्यारी सी लडकी को प्यार में हमेशा धोखा मिलेगा। कभी खिल कर जी नहीं पायेगी बेचारी।" मैंने हमेशा की तरह उसकी बात को हंसी में उडा दिया और कहा, "अच्छा हुआ तुमने उसके सामने कुछ नहीं कहा। वो तो जरा सी बात को दिल से लगा कर बैठ जाती है। बेचारी तुम्हारी बात से ही कुम्हला जाती। "
बाद में प्रियंका बार-बार पूंछती रही कि क्या बताया तुम्हारे भाई ने हमारा भविष्य । मैंने हर बार उसकी बात टाल दी। बस एक बार कहा,"प्रियंका तुम किसी से प्यार मत करना।"
मेरी बात पर वो खिलखिला कर हंस पडी। बोली, "पागल हो क्या? इतने दिनों में बस इतना ही समझ पाई हो अपनी सहेली को। मुझे अपने मां- पापा की इज्जत जान से प्यारी है। पापा कभी भी प्रेम विवाह के लिये राजी नहीं होंगे। तो मैं प्रेम कैसे कर सकती हूं। जिस राह जाना नहीं, उसके कोस क्या गिनना।"
हम मैं उसका हंसता हुआ चेहरा देखती ही रह गयी और मन ही मन अपने आप को समझाया कि कौन इतनी प्यारी शख्सियत को प्यार नहीं कर बैठेगा। जो भी इसकी राह में कांटे ले कर आयेगा उसको ये फूल सी लडकी अपना बना लेगी।

Wednesday, January 20, 2010

बसंत पंचमी से जुडी बचपन की यादें



बसंत पर अभी अभी ही एक पोस्ट डाली है। पर मन अभी भी कुछ और लिखने का हो रहा है। बचपन से जुडी कितनी यादें जहन में आ जा रही हैं। सोंचते हैं उन्हीं को जोड कर कुछ पोस्ट सा बना दें।

बचपन में बसंत पंचमी पर घर में एक उत्सव का सा माहौल होता था। ये दिन हमारे पर दादाजी श्री रामचन्द्र जी का जन्मदिन होता है। और हमारे यहां बहुत धूम-धाम से मनाया जाता है। हम सभी सुबह से ही पीले-बसंती कपडे पहन कर तैयार हो जाते थे। ये पूरा दिन हम लोग उनकी समाधिस्थल पर मनाते थे। वहीं पर चूल्हा जलाकर तहरी बनाई जाती थी। गोबर के उपलों पर हम लोग आलू और शक्करकंदियां भूनते थे। भुने हुये आलू और हरे धनिया की खट्टी चटनी! अब ऎसा स्वाद कहां मिलता है। शांतिपाठ के बाद पीली बूंदी का पर्शाद चढता था।

ये दिन बहुत ही शुभ माना जाता है। हमें याद है अगर किसी बच्चे के कान छिदवाने हों तो बसंत के दिन ही चांदी की बालियों से कान छेदे जाते थे। हमारे कान भी बसंत के दिन ही शायद जब हम तीन साल के रहे होंगे तब छेदे गये थे। कुछ ज्यादा याद नहीं है बस इतना याद है कि हम बहुत रोये थे तब।

और हां बसंत के दिन तो पतंगो से आसमान पटा रहता था। अब भी शायद वहां ऎसे ही बसंत मनायी जाती होगी। हमारी यादों में तो वो दिन ऎसे ही सहेजे हुये रखे हैं।

ऋतु राज बसंत

आज बसंत पंच्चमी के दिन सब कुछ खिला निखरा सा लग रहा है। यूं तो बैंगलौर में सभी मौसम सुन्दर बसंत से होते हैं, पर आज के दिन की बात ही कुछ और है। ऋतु राज बसंत का आगमन चारों ओर दिखाई दे रहा है। हर बसंत पर अपने बचपन में लिखी एक कविता याद आ जाती है। आज उसे ही अपने ब्लाग पर पोस्ट कर रहे हैं।

आ गई मधुरिम ऋतु बसंत
लेकर कुछ नई बहारें नये रंग
वातावरण सुरभित हुआ पल्ल्वित फूलों से
भंवरे करने लगे मधुर-मधुर गुंजन

रास्ते करने लगे राही का इंतज़ार
पेड सजाने लगे अपने आप तोरण द्वार
डालियां करने लगीं झुक कर अभिवादन

मन मयूर नाच उठा मनभावन ऋतु में
संग मेरे गा उठे पल्लव और शाखें
चहुं ओर बस गया एक सुंदर मधुबन

सुन कर किसी अनजाने अजनबी की आहट
नहीं रहा अपने आप पर नियंत्रण
कर बैठी अपना सर्वस्व समर्पण

Tuesday, January 19, 2010

एक हाइपर्लिंक्ड लम्हा

ज़िन्दगी में कुछ लम्हे हाइपर्लिंक्ड से होते है....

बस एक जरा सी क्लिक के साथ एक नया सफ्हा खुल जाता है.................

और कभी कभी लिक नहीं भी खुलता, और पेज नाट फाउन्ड का बोर्ड आ जाता है.......

बार-बार क्लिक करने पर भी कुछ याद नहीं आता.......

पता नहीं क्या लिखना था और क्या लिख रहे हैं,

फिर कभी

Thursday, January 14, 2010

दूरदर्शन और मिले सुर मेरा तुम्हारा....


पिछले पांच- छ: महीनों से हमने टीवी केबिल कटवाया हुआ है। बच्चे हर वक्त टीवी देखने की जिद करते थे और हमें हमेशा लगता था कि ये सब सही नहीं है उनके नन्हें दिमाग के लिये। यही सोंच कर हमने ये कदम उठाया। दिन अच्छे गुज़र रहे थे बिना टीवी के। कभी कभार वीक एंड पर कुछ मूवी देख ली या बच्चों के लिये कुछ उनकी उम्र के अनुसार लगा दिया। तभी एक मित्र (जिनके घर भी केबिल नहीं है) ने बताया कि सौ रुपये में एक एंटीना मिलता है जिससे सिर्फ दूरदर्शन देखा जा सकता है। हमने सोंचा कि शायद दूरदर्शन अच्छा रहेगा कभी-कभी बच्चों के लिये और अपने लिये भी। बस अब एंटीने की खोज शुरु हो गई। कितनी ही दुकानों पर पूंछा, सब मुस्कुरा कर कहते, "आजकल के जमाने में दूरदर्शन कौन देखता है।"

खैर कई हफ्तों की खोज के बाद एक दुकान वाले ने ये ऎंटीना मंगवा ही दिया। हमने बडी खुशी के साथ एंटीना एंस्टाल किया। ट्रांस्मीशन इतना साफ नहीं था, फिर भी काम चलाऊ पिक्चर आ ही गई। पिछले दिनों बांग्ला देश और श्री लंका सीरीज़ के तहत हमारे पतिदेव ने अपने पूर्वप्यार क्रिकेट के साथ कुछ पल गुजारे। हां बच्चों को कुछ नहीं मिला अपनी पसंद का क्योंकि सुबह शाम तो क्न्नड दूरदर्शन ही आ रहा है।

आज हमें खाली वक्त मिला ता टीवी आन किया(यूं तो टीवी देखना भूल सा गये थे) तो चिरपरिचित संगीत सुनाई दिया। "मिले सुर मेरा तुम्हारा...तो सुर बने हमारा.." मन खुश हो गया। पूरे एलर्ट हो कर बैठ गये और गीत की एक एक पंक्ति, एक एक द्रष्य को फिर से जिया। कांती को बुलाया , "देखो ये गाना जब हम छोटे थे तब भी आता था।" उसने आकर एक झलक देखा और ओके कहकर वापस अपने खेल में रम गई। और हम पता नहीं कितने साल पुरानी यादों में पहुंच गये। पता नहीं कितने सालों से ये गीत दूरदर्शन की पहचान बना हुआ है। कितना अच्छा लगा इस गीत के साथ बचपन की गलियों में एक बार फिर से झांकना। अपने बचपन के कितने सीरियल एकदम से याद आ गये। सिग्मा, इंद्र्धनुष, कच्ची धूप, नीव, फाइटर फेने और भी जाने क्या कया। हम सब रविवार का कितनी बेसब्री से इंतज़ार करते थे। और अपना सब काम निबटा कर बैठ जाते थे टीवी के सामने। और ऎसे में गर्मी के दिनों में पावर कट कितना रुलाता था। कितने खूबसूरत दिन थे। पर शायद हमारे मम्मी पापा को कभी सोंचना नहीं पडा होगा कि होगा कि ये कार्यक्रम हमारे बच्चों के लिये ठीक है भी कि नहीं। बस रविवार को ही अपने पसंदीदा सीरीयल देख कर हम लोग खुश हो जाया करते थे और सारे हफ्ते उसी की बातें होती थीं।

और आजकल अनगिनत टीवी चैनलों पर अनगिनत सीरियलों में क्या परोसा जा रहा है, उसका लेखा जोखा कौन रख सकता है। हमेशा ये डर सा लगा रहता था कि पता नहीं बच्चे जो कुछ टी्वी पर देख रहे हैं वो उनके विकास के लिये ठीक है भी कि नहीं। आदत सी पड गई थी बच्चों के साथ बैठ कर कर टीवी देखने की। अचरज होता था देख कर जरा जरा से बच्चों में पवित्र स्नेह की भावना को लाल रंग के दिल बना कर उसे रोमांस का नाम दे दिया जाता है। और मार-पिटाई भी कितनी होती इन प्रोग्राम्स में। चाहें वो टाम अन्ड जेरी हो या कोई चीनी जापानी हिन्दी/अंग्रेजी में अनुवादित सीरियल शिनचैन, निंजा हथौडी, परमैन या ऎसा ही कुछ और। बच्चे इन कार्यक्रमों को देख कर लगता है जैसे जल्दी बडे हुये जा रहे हैं। हमने अपने पडोस में मांओं को बात करते सुना है कि हमारा बच्चा तो अब डोरा से ग्रेजुयेट हो कर परमैन पर आ गया है। या "हमने अपनी बेटी को अब डिज़नी चैनल पर 'हैना मोंन्टेना' देखना अलाउ कर दिया है। आखिर वो दस साल की हो गई है। उसकी सब फ्रेंड्स देखती हैं तो वो लैफ्ट आउट फील करती है। शी इज़ आलमोस्ट अ टीन एज़र नाउ।"

पता नहीं क्यों हम ऎसी बातों में कभी प्रतिभागी नहीं बन पाये। हम तो खुश हैं कि हमारे घर केबिल नहीं है। हमारी आठ साल की बिटिया भी टीवी देखने की जिद करती है। पर हम उसे किसी न किसी तरह समझा देते हैं और हमारी लायब्रेरी में आये दिन ही एक नयी किताब का इजाफा होता है। जब बाकी सारे बच्चे बुद्धू बक्से के सामने बिना हिले-डुले बैठे होते हैं, तब हमारी दोनों बेटियां कुर्सियों के इर्द-गिर्द चादरें तान कर घर बना रही होती हैं। उस वक्त दोनों क्या मज़ेदार बातें करती जाती हैं। टीन एज़ से बहुत दूर हमारे बच्चे बचपन की गलियों मे विचरण कर रहे हैं। लगता है दोनों का कुछ झगडा हो गया है। चलते हैं.....आसान नहीं है वैसे दोनों का झगडा निपटाना।
(चित्र गूगल से साभार)