Saturday, June 25, 2005

उदासी और कविता

उदासी और मन का जरूर
कविता से कुछ गहरा नाता है;
जहां घिरे कुछ बादल गम के ,
गीत नया बन जाता है!

आंखे हैं या बादल हैं ये;
भेद न इनका हम जानें.
झङी लगी हो जब अश्कों की,
नज़र कहां कुछ आता है।

सांझा दर्द है हम दोनों का
आंखे मेरी, आंसू तेरे;
बहुत प्यार हो जब 'हम-तुम' में
कुछ का कुछ हो जाता है।


P.b. Shelley का एक वाक्य याद आता है:-
Our sweetest songs are those that come from saddest thoughts.

Monday, June 13, 2005

मित्र

मित्र तुम कितने भले हो!
तम से भरे इस सघन वन में;
दीप के जैसे जले हो!
मित्र तुम कितने भले हो!

तुम वो नहीं जो साथ छोङो;
या मुश्किलों में मुंह को मोङो।
राह के हर मील पर तुम,
निर्देश से बनकर खङे हो।
मित्र तुम कितने भले हो!

संशयों में मन घिरा जब;
तुम ही ने तो था उबारा।
पार्थ हूं जो मैं कभी,
तुम सारथि मेरे बने हो।
मित्र तुम कितने भले हो!

नयन से ढलें मोती कभी तो,
हांथ सीपी हैं तुम्हारे।
हर एक क्रन्दन पर मेरे तुम
अश्रु बनकर भी झरे हो।
मित्र तुम कितने भले हो!

भंवर में था मन घिरा जब;
तिनके का भी न था सहारा।
डगमागाती सी नाव की तब,
पतवार तुम ही तो बने हो।
मित्र तुम कितने भले हो!

Wednesday, June 08, 2005

मेरा परिचय

शब्द ही हैं मेरे आईना मेरा;
ढूंढती फिरती हूं कबसे,
मैं खुद ही का पता!

खुद के बारे में कुछ कहना, अपना परिचय देनाकुछ कठिन काम सा लगता है। लगता है जैसे एक जी हुयी कहानी को फिर से कहना या उङते फिरते तितली से शब्दों को तस्वीर बन जाने की सजा देना।
वैसे सीधे साधे शब्दों में कहें, तो कुछ मुश्किल भी नहीं है। तो शुरु करते हैं, नाम-सभी का एक होता है, मां पापा का दिया हुआ, पर पापा कहते हैं हमने अपना नाम खुद रखा था 'सारिका' जिसका अर्थ होता है 'मैना'। बाकी तो सब सोनू ही कहकर बुलाते हैं। अगस्त १९७६ को इस दुनिया में आये, स्थान था फतेहगढ (फर्रूखाबाद) [उत्तर प्रदेश]। शिक्षा-दीक्षा हुयी पहले फतेहगढ में और बाद में बरेली से इतिहास में स्नातकोत्तर किया। पढाई में हमेशा औसत ही रहे। पर भावुकता ने कलम से दोस्ती करा दी और बस भावनाओं को लव्ज़ों में ढालकर नज़्मों का रूप देते रहे। लिखा बहुत कुछ पर जाने क्यों कभी कुछ सम्भाल कर नहीं रख पाये।
पढाई खत्म हुयी तो फिर आती है विवाह की बारी- जैसे हर लङकी का दूसरा जन्म होता है, हमारे साथ भी ऎसे ही कुछ हुआ। इसे आध्यात्मिक विवाह कहें तो अतिशयोक्ति न होगी। हमारे आध्यात्मिक गुरु श्री पी. राजगोपालाचारी जी ने हमें चुना दक्षिण (हैदराबाद) के वेंकट सोनाथी के लिये, और ये चयन धर्म, जाति और भाषा के परे था। २४ जुलाई२००० को बिना किसी सामाजिक रीति-रिवाज के (बिना सात फेरों के) एक आध्यात्मिक समारोह में हम अपने जीवन-साथी के साथ नव-जीवन की ओर अग्रसर हो गये। विवाह ने हमें उत्तर से दक्षिण ही नहीं पहुंचाया बल्कि सात समुन्दर पार भी पहुंचा दिया, और साथ में बना दिया एक नन्ही सी कली की माँ!
तो है तो ये सीधी-सरल सी कहानी जो किसी के भी जीवन से मिलती-जुलती हो सकती है। मगर हम खुद के बारे में जब कभी गौर से सोंचते हैं तो खुद को एक बेटी, बहन, पत्नी और माँ से कहीं अलग हटकर एक एक अनोखी लङकी के रूप में पाते हैं जो स्वच्छन्द है, आजाद है जो किन्ही बन्धनों को नहीं मानती, जिसका बचपन अभी भी उसके साथ है,जो चिर यौवना है पर जीवन सन्ध्या को निकट से जानने की चरम उत्कण्ठा रखती है। एक ऎसी लङकी जो कभी तो 'अमृता प्रीतम' की 'अनीता' सी लगती है कभी 'शिवानी' की 'कृष्ण कली'। जिसका मन कभी बचपन की कुलांचे भरता है तो अचानक उसे प्रौढ गम्भीरता घेर लेती है। जिसे कभी जीवन की जटिलतायें भी विचलित नहीं कर पाती, पर कभी किसी का छोटा सा दर्द रुला जाता है......और ये फेहरिस्त बहुत लम्बी, बस चलती ही जायेगी। तो इसे बस यहीं विराम देते हैं बाद में फेर बदल तो होते ही रहेंगे।

Saturday, June 04, 2005

यादें

तुम कही तो होगे
हमें याद तो करते होगे।
यादें भूलाना आसां होता
तो हम कबके तुम्हे
भूल गये होते;पर
तुम अब भी
चुपके से
कभी किसी खिङकी से,
या किसी दरवाजे से
यादों में दस्तक दे जाते हो।
अपने कहीं अतीत में होने का
अहसास करा जाते हो
फ़िर ऎसे ही कहीं
हम भी तो
तुम्हारी यादों के किन्ही कोनों में
ज़िन्दा होंगे।
बेवजह किसी की बातों में
या यूं ही किसी के हंसने में
हम तुमको दिख जाते होंगे।
और फ़िर तुम कुछ झल्लाकर
या मुस्कुराकर
मेरी यादों को
दिल से भी दूर झटकते होगे।
दुनिया की रंगीनी में
कुछ रंग खुशी के तलाशते होगे।
....
ये जाने कैसा रिश्ता है
जो कभी बना नहीं
पर जाने कितना गहरा है
जो कहीं नहीं होकर भी
किस शान से दिलों में जिन्दा है।

वक्त का बजरा

वक्त का बजरा;
क्यूं बहता रहता है बेहिसाब ,
बेमक्सद सा।
लहरों की आजमाइश में ,
डूबता- उतराता
बहता रह्ता है ,
बस चुप-चुप सा।
दिन आते हैं ....
गुजर जाते हैं.....
कुछ मानूस,
कुछ अजनबी
जैसे किसी अर्गनी पर
टंग कर उतर जाते हैं।
बस वक्त खङा रहता है
ठिठका सा!
ख्वाबों की
सपनीली सतहों पर
जहां सब कुछ
मुट्ठी में बन्द
रेत सा लगता है
मन क्यूं पहुंच जाता है
और तकता रहता है
बेबस सा!
--सारिका

Friday, June 03, 2005

शब्द.....

शब्द.....
क्या हैं आखिर शब्द? अक्षरों से भरी एक उंजलि ही तो हैं,
जो बनते हैं उदगार कितने बेचैन ह्र्दयों का...
कभी गीत का रूप लेते हैं ये शब्द ,कभी नज़्म का।
कभी कहते हैं कोई कथा, कभी बयान करते हैं कोई किस्सा।
कभी मौन होकर ही कह देते हैं किन्ही अनकही बातों को।
उकेर सकते हैं ये शब्द पत्थर की किसी मूरत को...
कभी ये शब्द इन्द्रधनुषी रंग बिखेरते हैंकिसी चित्रकार की तूलिका से।
शब्दों का नहीं है कोई आदि या अन्त ...,
युगों से ये खुद ही हैं पहचान अपनी गवाह हैं इतिहास के!
इन्हीं जादुई अक्षरों से भरी ये उंजलि ...
अर्पित है ये शब्दांजलि!

कौन हो तुम

अनकही बातें
कौन हो?
कुछ तो कहो तुम!
स्वर्ण हो ?
या हो रजत तुम!
आने से तुम्हारे मन खिला है;
पर कहीं तूफ़ां तो नहीं हो?
बहार हो ?
या हो खिजा तुम!
लगते तो हो प्रातः किरण जैसे;
पर कहीं रात्रि तो नहीं हो?
उषा हो?
या हो निषा तुम!
कहती हैं आंखे कुछ तो तुम्हारी;
पर कहीं ये कुछ वहम न हो,
यथार्त हो?
या हो कल्पना तुम!
हैं कितनी गहरी बातें तुम्हारी,
कितने जाने डूब गये हों;
नदिया हो?
या हो सागर तुम!
साथ तुम्हारा भला लगता है;
पर इस रिश्ते को नाम क्या दूं?
अपने हो?
या हो अजनबी तुम!
--सारिका सक्सेना