बातें जो दिल से निकलीं ...पर ज़ुबां तक न पहुंची ...बस बीच में ही कहीं कलम से होती हुयी पन्नों पर अटक गयीं... यही कुछ है इन अनकही बातों में...
Saturday, February 06, 2010
"१०८४वें की मां"
आज महाश्वेता देवी का उपन्यास "१०८४वें की मां" पढा। मन को कहीं गहरे तक छू गया। ये कहानी है सुजाता चैटर्जी की जो एक साधारण महिला है,एक बैंक में काम करती है। उसका जीवन उसके परिवार और कर्तव्यों के इर्द-गिर्द घूमता रहता है। उसका सबसे छोटा बेटा व्रती नक्सलवादियों के संग में पडकर मारा जाता है। उसकी लाश का नम्बर १०८४ है। और सुजाता बन जाती है १०८४वें की मां!
सुजाता अपने बेटे के जीवनकाल में उसके नक्सलवादियों से सम्बन्ध के बारे में बिल्कुल अनभिग्य रहती है। पूरा उपन्यास एक दिन पर ही आधारित है जो कि व्रती का जन्मदिवस भी है और म्रत्यु दिवस भी। कुल मिलाकर पूरा उपन्यास बहुत ही अच्छा लगा।
इस उपन्यास पर गोविन्द निलहानी ने "हजार चौरासी की मां" नाम से एक मूवी भी बनायी है। जब मौका लगे तो ये मूवी भी देखना है।
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6 comments:
जरूर देखिये... अच्छी फिल्म है... महाश्वेता देवी का आलेख रविवार को अक्सर हिंदुस्तान में आता है जो मुख्यतया दलित और नक्सलियों पर केन्द्रित होता है..
धन्यवाद इस जानकारी के लिये।
उपन्यास तो नहीं पढ़ा लेकिन फिल्म जरुर देखी है और बहुत प्रभावित हूँ.
पुस्तक पढने या फिल्म देखने से ही भरोसा हो पायेगा, वैसे हमारे एक मित्र ने इसपर एक पोस्ट लिखा है इसे भी देखे http://rajeevnhpc.blogspot.com/2009/02/blog-post.html
निश्चय ही बेहद खूबसूरत उपन्यास और जीवंत भी ।
फिल्म भी बेहतरीन है ।
प्रविष्टि का आभार ।
उपन्यास तो नहीं पढ़ा...पर फिल्म देखी है...बस कमाल की फिल्म है...इसका नाटकीय मंचन भी ज्यादातर विदेशों में हुआ है...मुंबई में भी था ,,देखने की सोची..तो पता चला..टिकट 7000 से 3000 के बीच हैं, not worth it ...और इरादा बदल दिया
BTW तुमने हाल में ही मन्नू भंडारी की 'यही सच है' पढ़ी है ना...उस पे लिखो कुछ...मैं भूल गयी हूँ,बहुत दिनों पहले पढ़ा था...(और इतने दिनों बाद ब्लॉग पर आने के लिए very very sorry )
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