Friday, September 02, 2005

तुझसे पहचान

तुझसे हुई है पहचान जबसे
खुद से अन्जान हो गई हूं मैं
खुद से मिल के कोई थम सा जाय
ऎसे हैरान हो गई हूं मैं

तेरे नाम से ही बस दिल धङकने लगे,
तुझसे रूबरु हूं कभी तो लब कांपे
एक मुस्कुराहट सी चस्पाँ है हर वक्त
कभी हंसी के अपनी कानों में कहकहे गूंजे
कभी उदासी के आलम में खुद को डूबा देखूं
कितनी कमजोर हो गयी हूं मैं

मेरी आवाज़ मेरा साथ न दे,
मेरे हांथों में अपना हांथ न दे
सारे अल्फ़ाज़ लङखङा जायें,
जिस्मों जां जैसे थरथरा जायें
कौन समझेगा मेरी हालत को
मेरे जज़्बों को मेरी चाहत को
खुद किसी को बता नहीं सकती
तुझसे मानूस हो नहीं पाती
दूर चाहूं तो जा नहीं सकती
हर सू तुझे महसूस करती हूं मैं

वक्त की शाख पर नई कोंपल
मौसमे-गुल ने कुछ ऎसे उगाई है
जैसे जाङे की सर्द रातों में
कोई अहसास हौले से नरमाई दे
और कोई लङकी अपने दहके हुये कानों को
फ़कत अपने हांथो से छुपाना चाहे
तेरी खामोशी और बातें सुनके
हो गई हूं मैं भी एक आम सी लङकी
जो आंखे मूंदे सपनों का इंतज़ार करती है
क्यों जागी रातों को सपने देखती हूं मैं

1 comment:

Sumir Sharma said...

अति खुबसुरत