रोज वही सूरज का ढलना,
नैनों में दीपक का जलना,
सदियों सी इक शाम बिताकर;
रात गये फिर उनसे मिलना।
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राह देखते तेरी,
खुद राह हो गये तेरी,
इस राह की तकदीर में;
कभी तो हो अगवानी तेरी।
बातें जो दिल से निकलीं ...पर ज़ुबां तक न पहुंची ...बस बीच में ही कहीं कलम से होती हुयी पन्नों पर अटक गयीं... यही कुछ है इन अनकही बातों में...
Monday, September 19, 2005
Tuesday, September 13, 2005
बहाना...........
बहाना ढूंढ रहे थे सुबह से रोने का ;
तका जो फलक तो झङी लग के बरसात हुई।
इक अजनबी सी लङकी मेरे अन्दर रहा करती है;
देखा जो आज आईना तो उस से मुलाकात हुई।
तका जो फलक तो झङी लग के बरसात हुई।
इक अजनबी सी लङकी मेरे अन्दर रहा करती है;
देखा जो आज आईना तो उस से मुलाकात हुई।
Saturday, September 10, 2005
बारिश में
याद बहुत आई
इस बार भी
घर की बारिश में
मन को मनाया तो बहुत
पर भर आईं
आखिर अंखियां बारिश में ।
सखियां, झूले;
कागज़ की नावें,
एक साथ ही जैसे
चले आये यादों में,
नहीं रुक पाया बस
भर आया मन
इस बार भी बारिश में।
मेंहदी भी नहीं रचती
हथेलियों में यहां जैसे,
चूङियां भी कलाइयों में,
सजती हैं कहां वैसे
बस बादल ही
बरसते हैं हरबार
यहां बारिश में।
क्या कहें?
होता है यहां
हर साल यही बारिश में।
इस बार भी
घर की बारिश में
मन को मनाया तो बहुत
पर भर आईं
आखिर अंखियां बारिश में ।
सखियां, झूले;
कागज़ की नावें,
एक साथ ही जैसे
चले आये यादों में,
नहीं रुक पाया बस
भर आया मन
इस बार भी बारिश में।
मेंहदी भी नहीं रचती
हथेलियों में यहां जैसे,
चूङियां भी कलाइयों में,
सजती हैं कहां वैसे
बस बादल ही
बरसते हैं हरबार
यहां बारिश में।
क्या कहें?
होता है यहां
हर साल यही बारिश में।
Tuesday, September 06, 2005
गीत
कुछ गीत बन रहे हैं, मेरे मन की उलझनों में।
कुछ साज़ बज रहे हैं, मेरे मन की सरगमों मे॥
कुछ है जो कहा नहीं जाता, अपनी ही ज़ुबां से,
कुछ बात छिपी हुई है, मेरे मन की चिलमनों में।
अनन्त से क्षिति तक, छाई है एक खुमारी,
मय सी बरस रही है, मेघों की गरजनों में।
यामिनी बन गई है, एक अनकही सी कहानी,
ऊषा खो गई है, सन्ध्या की धङकनों में।
कुछ साज़ बज रहे हैं, मेरे मन की सरगमों मे॥
कुछ है जो कहा नहीं जाता, अपनी ही ज़ुबां से,
कुछ बात छिपी हुई है, मेरे मन की चिलमनों में।
अनन्त से क्षिति तक, छाई है एक खुमारी,
मय सी बरस रही है, मेघों की गरजनों में।
यामिनी बन गई है, एक अनकही सी कहानी,
ऊषा खो गई है, सन्ध्या की धङकनों में।
Friday, September 02, 2005
तुझसे पहचान
तुझसे हुई है पहचान जबसे
खुद से अन्जान हो गई हूं मैं
खुद से मिल के कोई थम सा जाय
ऎसे हैरान हो गई हूं मैं
तेरे नाम से ही बस दिल धङकने लगे,
तुझसे रूबरु हूं कभी तो लब कांपे
एक मुस्कुराहट सी चस्पाँ है हर वक्त
कभी हंसी के अपनी कानों में कहकहे गूंजे
कभी उदासी के आलम में खुद को डूबा देखूं
कितनी कमजोर हो गयी हूं मैं
मेरी आवाज़ मेरा साथ न दे,
मेरे हांथों में अपना हांथ न दे
सारे अल्फ़ाज़ लङखङा जायें,
जिस्मों जां जैसे थरथरा जायें
कौन समझेगा मेरी हालत को
मेरे जज़्बों को मेरी चाहत को
खुद किसी को बता नहीं सकती
तुझसे मानूस हो नहीं पाती
दूर चाहूं तो जा नहीं सकती
हर सू तुझे महसूस करती हूं मैं
वक्त की शाख पर नई कोंपल
मौसमे-गुल ने कुछ ऎसे उगाई है
जैसे जाङे की सर्द रातों में
कोई अहसास हौले से नरमाई दे
और कोई लङकी अपने दहके हुये कानों को
फ़कत अपने हांथो से छुपाना चाहे
तेरी खामोशी और बातें सुनके
हो गई हूं मैं भी एक आम सी लङकी
जो आंखे मूंदे सपनों का इंतज़ार करती है
क्यों जागी रातों को सपने देखती हूं मैं
खुद से अन्जान हो गई हूं मैं
खुद से मिल के कोई थम सा जाय
ऎसे हैरान हो गई हूं मैं
तेरे नाम से ही बस दिल धङकने लगे,
तुझसे रूबरु हूं कभी तो लब कांपे
एक मुस्कुराहट सी चस्पाँ है हर वक्त
कभी हंसी के अपनी कानों में कहकहे गूंजे
कभी उदासी के आलम में खुद को डूबा देखूं
कितनी कमजोर हो गयी हूं मैं
मेरी आवाज़ मेरा साथ न दे,
मेरे हांथों में अपना हांथ न दे
सारे अल्फ़ाज़ लङखङा जायें,
जिस्मों जां जैसे थरथरा जायें
कौन समझेगा मेरी हालत को
मेरे जज़्बों को मेरी चाहत को
खुद किसी को बता नहीं सकती
तुझसे मानूस हो नहीं पाती
दूर चाहूं तो जा नहीं सकती
हर सू तुझे महसूस करती हूं मैं
वक्त की शाख पर नई कोंपल
मौसमे-गुल ने कुछ ऎसे उगाई है
जैसे जाङे की सर्द रातों में
कोई अहसास हौले से नरमाई दे
और कोई लङकी अपने दहके हुये कानों को
फ़कत अपने हांथो से छुपाना चाहे
तेरी खामोशी और बातें सुनके
हो गई हूं मैं भी एक आम सी लङकी
जो आंखे मूंदे सपनों का इंतज़ार करती है
क्यों जागी रातों को सपने देखती हूं मैं
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