कुछ न कहो बस ख्वाब का क्या है
ख्वाब सुनहरे होते हैं।
कितने सारे पागल प्रेमी,
मिल के इन्हें सजोंते हैं।
कांच के नाजुक ताजमहल से ,
रखना इन्हें सम्भल के तुम;
एक ठेस भी गर लग जाय
किरचें दिल में चुभोते हैं।
किसी को मंज़िल तक पहुंचायें
किसी के राह में बिखर गये,
कहीं-कहीं पर धूमिल-धूमिल
कहीं रुपहले होते हैं।
ख्वाब हैं आखिर टूट जायं तो,
नये ख्वाब तुम बुन लेना;
माला गर टूट जाय तो
मोती नये पिरोते हैं।
बातें जो दिल से निकलीं ...पर ज़ुबां तक न पहुंची ...बस बीच में ही कहीं कलम से होती हुयी पन्नों पर अटक गयीं... यही कुछ है इन अनकही बातों में...
Wednesday, November 30, 2005
Friday, November 18, 2005
यादें बचपन की.....
आज ऎसे ही सोंचा कि अपने बचपन को याद किया जाय। रोज़ ही सोंचते रहते हैं कुछ लिखने के लिये पर वक्त नहीं निकाल पाते, यूं लिखने को तो बहुत कुछ है। जब लिखना शुरु कर दिया है तो बचपन से खूबसूरत और क्या होगा। वैसे पुराने दिनों की याद करने बैठो तो ज्यादा कुछ याद नहीं आता, बस कुछ धुंधली, कुछ स्पष्ट थोड़ी सी यादें है। हमारी याददाश्त ज्यादा तेज नहीं है, कुछ विशेष बातें ही याद रह जाती हैं।
हमारा पहला स्कूल था भारती मान्टेसरी स्कूल! हमें याद है हम जब मम्मी के साथ वहां एड्मीशन लेने गये थे। बहुत ही ज्यादा उत्साहित थे हम स्कूल जाने के लिये। पर अगले ही दिन जब बिना मम्मी के अकेले स्कूल जाना पड़ा तो रोना शुरु हो गया था। ऎसे ही बस स्कूल जाते जाते स्कूल अच्छा लगने लगा। और जब पढना सीखा तो एकदम ही किताबी कीड़े बन गये। हर वक्त कुछ न कुछ पढते रहना हमारा प्रिय शौक बन गया। और जब हम कुछ रोचक पढ रहे होते थे तो हमें आस पास के बारे में कुछ पता नहीं होता था और न ही कुछ सुनाई पड़ता था। उन्हीं दिनों की एक घटना जब हम तीसरी क्लास में पढते थे , अब भी याद है, उसका निशान मन के साथ हांथ पर अब भी है। हुआ यूं कि हम क्लास में बैठे कोई किताब बहुत तल्लीनता से पढ रहे थे। हमारी एक सह्पाठी दीपशिखा (नाम अब भी याद है) ने अपनी पेंसिल ब्लेड से बहुत ही अच्छे से छीली। पेंसिल की नोक बहुत नुकीली और बड़ी हो गई थी और दीपशिखा हमें ये दिखाना चाहती थी, हमने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया,जब उसने कई बार टोंका तो हमने उसकी पेंसिल तोड़ दी। उसे इस पर इतना गुस्सा आया कि उसने ब्लेड हमारे हांथ पर चला दिया। इतना खून निकला कि आस पास के सब लोग डर गये, पर हमने टीचर से शिकायत नहीं की क्योंकि हमें पता था कि गलती हमारी भी है। हालांकि बाद में टीचर को पता चल गया और परिणाम स्वरूप सभी के ब्लेड जब्त कर लिये गये। चौथी क्लास तक हम उस स्कूल में पढे। उसके बाद पिताश्री ने हमारा नाम इंग्लिश मीडीयम से सीधे संस्कृत मीडीयम, यानी की सरस्वती शिशु मन्दिर में करा दिया।
सरस्वती शिशु मन्दिर की कुछ बहुत प्यारी यादें अब भी जहन में हैं। वहां का माहौल हमारे पिछले स्कूल से बिल्कुल अलग था, जिससे शुरु शुरु में थोड़ी परेशानी हुई पर बाद में हम माहौल के मुताबिक ढल गये। शिशु मन्दिर में प्रतिदिन की शुरुवात प्रार्थना, एक समारोह की तरह होती थी। सुबह पूरे एक घन्टा मैदान में बैठना होता था। प्रातःस्मरण से शुरुवात होकर गीता के श्लोक, रामायण की चौपाईयां, विभिन्न गीत और सरस्वती वन्दना और भी न जाने क्या क्या होता था। हम वन्दना प्रमुख थे और सुबह की प्रार्थना सुचारु रूप से कराना हमारा काम था। उन्ही दिनों कविताओं से पहली पहचान हुई। हम लोगों को प्रतिदिन प्रार्थना के समय एक गीत भी गवाया जाता था। उनमें से दो कवितायें अभी भी याद हैं-
उगा सूर्य कैसा कहो मुक्ति का ये,
उजाला करोड़ो घरों में न पहुंचा।
खुला पिंजरा है मगर रक्त अब भी,
थके पंछियों के परों में न पहुंचा।
और
जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाय।
हमारे एक आचार्य जी (शिशु मन्दिर में टीचर को आचार्य कहकर बुलाते हैं) थे, जिनका नाम था दिनेश चन्द्र अग्निहोत्री। वो कविता लिखा करते थे और हम लोगों को सुनाया करते थे। तब समझ में कुछ ज्यादा नहीं आता था। पर अच्छा लगता था उन्हें सुनना।
उन्हीं दिनों विद्यालय के वार्षिकोत्सव का आयोजन हुआ। जिसमें विभिन्न कार्यक्रमों में हमने बढ-चढ कर हिस्सा लिया। यहां दिनेश आचार्य जी ने एक कवि सम्मेलन का भी आयोजन कराया। जिसमें हमें महादेवी वर्मा का किरदार मिला। तब पता नहीं था कि महादेवी वर्मा कितनी बड़ी कवियत्री हैं, बस अच्छा लगता था कि हमें इतना महत्वपूर्ण रोल मिला है। तभी महादेवी जी की पहली कविता पढी जो हमें स्टेज पर सुनानी थी-
वे मुस्काते फूल नहीं
जिनको आता है मुरझाना।
वे तारों के दीप नहीं,
जिनको भाता है बुझ जाना.....
और ये अब भी हमारी पसंदीदा कविता है।
महादेवी वर्मा का रोल करने से एक बात और ये हुई की हमने कविता करना शुरु कर दिया। घर में और स्कूल में सब हमें कवियत्री कहकर चिढाते थे। और हम चिढते भी बहुत थे। पता नहीं क्यों ऎसा लगा कि हमें कविता करनी चाहिये। दो अक्टूबर आने वाली थी तो सोंचा गांधी जी के ऊपर कविता लिखना अच्छा रहेगा। और अपनी पहली कविता की कुछ पंक्तियां अब भी याद हैं-
भारत की जनता को बापू जी ने संदेश दिया
पढो लिखो और चरखा कातो यही है हमको लक्ष्य दिया।
पर भारत की जनता ने इस सबको क्या अंजाम दिया,
फैली चारों ओर अव्यवस्था आतंक का बोलबाला है,
जनता नही सुधर पाई है चरखे को अब छोड़ दिया।
और भी काफी लम्बी कविता थी पर अब याद नहीं। अब इसे याद करके हंसी आती है। पर उन दिनों बहुत गर्व होता था कि हमने कविता लिखी है। इसे बार बार पढा करते थे। उन्ही दिनों हमारे यहां बुन्देल्खन्ड विश्ववविद्यालय के वाइस चांसलर डा. बी.बी.लाल आये। पापा ने उन्हें बता दिया कि हम कविता लिखते हैं। तो उन्होंने हमारी क्लास ले ली। बोले अपनी कोई कविता दिखाओ। हमने उसी दिन इन्द्र धनुष को देखकर एक कविता लिखी थी -
सत्ताइस तारीख की शाम मेरे मन में आज भी है
जब निकला था इन्द्रधनुष आसमान में...
उन्होंने इस कविता को पढकर हमें ढेर सारे उपदेश दे डाले, कि कविता लिखना है तो अभी से सीखना होगा, कविता में लय होनी चाहिये, वगैरह वगैरह...। पता नहीं क्यों हमें उनके उपदेश अच्छे नहीं लगे और हमने कविता लिखना कुछ सालों के लिये स्थगित कर दिया। आखिर हम पांचवी क्लास में थे और भी बहुत काम थे करने को।
शिशु मन्दिर में ही एक और गीत सीखा जिसे हमारे हिसाब से राष्ट्र गान की संज्ञा मिलनी चाहिये। इसे याद करने की कोशिश कर रहे हैं पर ठीक से याद नहीं आ रहा।
आप लोगों में से किसी को याद हो तो बताइये।
सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा।
हम बुलबुलें हैं इसकी ये गुलसितां हमारा।
मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना।
हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्तां हमारा।
गोदी में खेलती हैं जिसकी हजारों नदियां।
गुलशन है जिसके दम से ----।
पर्वत वो सबसे ऊंचा हम साया आसमां का,
---
ये गीत शायद इकबाल का है। हमें ठीक से नहीं पता। आपको पता हो तो बतायें।
हमारा पहला स्कूल था भारती मान्टेसरी स्कूल! हमें याद है हम जब मम्मी के साथ वहां एड्मीशन लेने गये थे। बहुत ही ज्यादा उत्साहित थे हम स्कूल जाने के लिये। पर अगले ही दिन जब बिना मम्मी के अकेले स्कूल जाना पड़ा तो रोना शुरु हो गया था। ऎसे ही बस स्कूल जाते जाते स्कूल अच्छा लगने लगा। और जब पढना सीखा तो एकदम ही किताबी कीड़े बन गये। हर वक्त कुछ न कुछ पढते रहना हमारा प्रिय शौक बन गया। और जब हम कुछ रोचक पढ रहे होते थे तो हमें आस पास के बारे में कुछ पता नहीं होता था और न ही कुछ सुनाई पड़ता था। उन्हीं दिनों की एक घटना जब हम तीसरी क्लास में पढते थे , अब भी याद है, उसका निशान मन के साथ हांथ पर अब भी है। हुआ यूं कि हम क्लास में बैठे कोई किताब बहुत तल्लीनता से पढ रहे थे। हमारी एक सह्पाठी दीपशिखा (नाम अब भी याद है) ने अपनी पेंसिल ब्लेड से बहुत ही अच्छे से छीली। पेंसिल की नोक बहुत नुकीली और बड़ी हो गई थी और दीपशिखा हमें ये दिखाना चाहती थी, हमने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया,जब उसने कई बार टोंका तो हमने उसकी पेंसिल तोड़ दी। उसे इस पर इतना गुस्सा आया कि उसने ब्लेड हमारे हांथ पर चला दिया। इतना खून निकला कि आस पास के सब लोग डर गये, पर हमने टीचर से शिकायत नहीं की क्योंकि हमें पता था कि गलती हमारी भी है। हालांकि बाद में टीचर को पता चल गया और परिणाम स्वरूप सभी के ब्लेड जब्त कर लिये गये। चौथी क्लास तक हम उस स्कूल में पढे। उसके बाद पिताश्री ने हमारा नाम इंग्लिश मीडीयम से सीधे संस्कृत मीडीयम, यानी की सरस्वती शिशु मन्दिर में करा दिया।
सरस्वती शिशु मन्दिर की कुछ बहुत प्यारी यादें अब भी जहन में हैं। वहां का माहौल हमारे पिछले स्कूल से बिल्कुल अलग था, जिससे शुरु शुरु में थोड़ी परेशानी हुई पर बाद में हम माहौल के मुताबिक ढल गये। शिशु मन्दिर में प्रतिदिन की शुरुवात प्रार्थना, एक समारोह की तरह होती थी। सुबह पूरे एक घन्टा मैदान में बैठना होता था। प्रातःस्मरण से शुरुवात होकर गीता के श्लोक, रामायण की चौपाईयां, विभिन्न गीत और सरस्वती वन्दना और भी न जाने क्या क्या होता था। हम वन्दना प्रमुख थे और सुबह की प्रार्थना सुचारु रूप से कराना हमारा काम था। उन्ही दिनों कविताओं से पहली पहचान हुई। हम लोगों को प्रतिदिन प्रार्थना के समय एक गीत भी गवाया जाता था। उनमें से दो कवितायें अभी भी याद हैं-
उगा सूर्य कैसा कहो मुक्ति का ये,
उजाला करोड़ो घरों में न पहुंचा।
खुला पिंजरा है मगर रक्त अब भी,
थके पंछियों के परों में न पहुंचा।
और
जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाय।
हमारे एक आचार्य जी (शिशु मन्दिर में टीचर को आचार्य कहकर बुलाते हैं) थे, जिनका नाम था दिनेश चन्द्र अग्निहोत्री। वो कविता लिखा करते थे और हम लोगों को सुनाया करते थे। तब समझ में कुछ ज्यादा नहीं आता था। पर अच्छा लगता था उन्हें सुनना।
उन्हीं दिनों विद्यालय के वार्षिकोत्सव का आयोजन हुआ। जिसमें विभिन्न कार्यक्रमों में हमने बढ-चढ कर हिस्सा लिया। यहां दिनेश आचार्य जी ने एक कवि सम्मेलन का भी आयोजन कराया। जिसमें हमें महादेवी वर्मा का किरदार मिला। तब पता नहीं था कि महादेवी वर्मा कितनी बड़ी कवियत्री हैं, बस अच्छा लगता था कि हमें इतना महत्वपूर्ण रोल मिला है। तभी महादेवी जी की पहली कविता पढी जो हमें स्टेज पर सुनानी थी-
वे मुस्काते फूल नहीं
जिनको आता है मुरझाना।
वे तारों के दीप नहीं,
जिनको भाता है बुझ जाना.....
और ये अब भी हमारी पसंदीदा कविता है।
महादेवी वर्मा का रोल करने से एक बात और ये हुई की हमने कविता करना शुरु कर दिया। घर में और स्कूल में सब हमें कवियत्री कहकर चिढाते थे। और हम चिढते भी बहुत थे। पता नहीं क्यों ऎसा लगा कि हमें कविता करनी चाहिये। दो अक्टूबर आने वाली थी तो सोंचा गांधी जी के ऊपर कविता लिखना अच्छा रहेगा। और अपनी पहली कविता की कुछ पंक्तियां अब भी याद हैं-
भारत की जनता को बापू जी ने संदेश दिया
पढो लिखो और चरखा कातो यही है हमको लक्ष्य दिया।
पर भारत की जनता ने इस सबको क्या अंजाम दिया,
फैली चारों ओर अव्यवस्था आतंक का बोलबाला है,
जनता नही सुधर पाई है चरखे को अब छोड़ दिया।
और भी काफी लम्बी कविता थी पर अब याद नहीं। अब इसे याद करके हंसी आती है। पर उन दिनों बहुत गर्व होता था कि हमने कविता लिखी है। इसे बार बार पढा करते थे। उन्ही दिनों हमारे यहां बुन्देल्खन्ड विश्ववविद्यालय के वाइस चांसलर डा. बी.बी.लाल आये। पापा ने उन्हें बता दिया कि हम कविता लिखते हैं। तो उन्होंने हमारी क्लास ले ली। बोले अपनी कोई कविता दिखाओ। हमने उसी दिन इन्द्र धनुष को देखकर एक कविता लिखी थी -
सत्ताइस तारीख की शाम मेरे मन में आज भी है
जब निकला था इन्द्रधनुष आसमान में...
उन्होंने इस कविता को पढकर हमें ढेर सारे उपदेश दे डाले, कि कविता लिखना है तो अभी से सीखना होगा, कविता में लय होनी चाहिये, वगैरह वगैरह...। पता नहीं क्यों हमें उनके उपदेश अच्छे नहीं लगे और हमने कविता लिखना कुछ सालों के लिये स्थगित कर दिया। आखिर हम पांचवी क्लास में थे और भी बहुत काम थे करने को।
शिशु मन्दिर में ही एक और गीत सीखा जिसे हमारे हिसाब से राष्ट्र गान की संज्ञा मिलनी चाहिये। इसे याद करने की कोशिश कर रहे हैं पर ठीक से याद नहीं आ रहा।
आप लोगों में से किसी को याद हो तो बताइये।
सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा।
हम बुलबुलें हैं इसकी ये गुलसितां हमारा।
मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना।
हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्तां हमारा।
गोदी में खेलती हैं जिसकी हजारों नदियां।
गुलशन है जिसके दम से ----।
पर्वत वो सबसे ऊंचा हम साया आसमां का,
---
ये गीत शायद इकबाल का है। हमें ठीक से नहीं पता। आपको पता हो तो बतायें।
Wednesday, November 16, 2005
मौसम की पहली बर्फ....
आखिर सर्दियां आ ही गईं। इस बार मौसम नये नये रंग दिखा रहा है। नवम्बर में भी कभी कभी गर्मी का सा अहसास हो रहा था। पतझड़ भी कितनी देर से आया इस बार, और कुछ रंग-बिरंगे पत्ते तो अभी भी पेड़ों पर बाकी हैं। और आज सुबह उठ कर खिड़की से बाहर देखा तो बर्फ पड़ रही थी। तापमान देखा तो 25 डिग्री फारेन्हाइट; शून्य से भी कुछ डिग्री नीचे। हां इसे भारी हिम्पात तो नहीं कह सकते, पर बर्फ तो है ही। नया-नया सब कुछ कितना अच्छा लगता है। सुबह कान्ती को स्कूल छोड़ने गये तो सब कुछ एक हल्की सी धुंध में ढका सा था। बर्फ रुई के सफेद फाहों सी उड़ती हुई विन्ड स्क्रीन पर आकर टकरा रही थी और एक पल में ही पिघल कर बही जा रही थी। जगजीत सिंह की गज़लें सुनते हुये बाहर के मौसम का मजा लेना कितना सुखद लग रहा था। मौसम की ये पहली बर्फ इतनी अच्छी लग रही है, पर कुछ ही दिन में इस से ऊब जायेंगे। जब चारों तरफ बस सफेदी का साम्राज्य सा छा जायेगा, तो यही बर्फ दुश्मन सी लगेगी। और हम फिर से बेसब्री से इंतज़ार शुरु कर देंगे- गर्मियों का।
यही तो है जीवन- जो पास नहीं है हमेशा मन वही मांगता है, और जो पास है उस की कोई कद्र नहीं।
एक तस्वीर पिछले साल की बर्फ से
यही तो है जीवन- जो पास नहीं है हमेशा मन वही मांगता है, और जो पास है उस की कोई कद्र नहीं।
एक तस्वीर पिछले साल की बर्फ से
Friday, November 11, 2005
एक छोटी सी प्रेम कहानी
प्रतीक्षा के पल
होते तो हैं मुश्किल; पर
इन्हीं में छुपी होती है-
आस जीवन की!
समर्पण करूं
खुद को तुम पर;
इससे बढकर और क्या चाहूं!
तुम मेरे बन जाओ तो;
और मैं 'उससे' क्या मांगू?
मिलन के ये दो पल प्रिये!
इंतज़ार था सदी भर का।
खुद को खोकर तुझमें
बनी हूं आज मैं अभिसारिका!
दो मन मिले,
दो तन मिले,
हम बने जीवन रथ के दो पहिये।
'मैं' को खोकर 'हम' ने पाया,
सुख तृप्ति का
परिणति यही तो होनी थी
Tuesday, November 01, 2005
एक दिया....
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