बातें जो दिल से निकलीं ...पर ज़ुबां तक न पहुंची ...बस बीच में ही कहीं कलम से होती हुयी पन्नों पर अटक गयीं... यही कुछ है इन अनकही बातों में...
Tuesday, August 23, 2005
एक नज़्म
कई दिन से है कलम बंद
आज कुछ तो लिखना है।
अक्षरों की राह होते हुये
आज कुछ तो बहकना है।
चलो ढूंढे मन की सिलवटों में...
कहीं तो छिपी बैठी होगी
कोई कविता-
या कोई अधूरी सी नज़्म;
लिख दें उसे फिर से
मोतियों सी लिखावट में;
दें उसे कोई नये मायने।
नहीं तो चलो-
खारे पानी में ही डुबो दें
आज कलम
रच दें दर्द का कोई नया नग्मा;
ज़िन्दगी की किताब में
कुछ नये सफे जोङें।
दें मन के गुबार को
इक नई भाषा;
तोङ दें इस पसरे हुये मौन को
कई दिन से है
कलम बंद
आज कुछ तो लिख दें........
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3 comments:
विचार तो उत्तम है। इसको अमल में कब लाया जायेगा?
Sarika,
A very subtle and thought-provoking poem...keep writing!
Anshul
भावों का शब्दों में प्रवाह बहुत मनोहर है
"कलम बन्द" को पहले उर्दु का कलम्बन्द पढ गया पर दुसरी बार पढने पर ठीक लगा
'खारे पानी में ही डुबो दें
आज कलम" एक दम कविता के भाव को उजागर कर देती है
लिखतें रहें
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