बातें जो दिल से निकलीं ...पर ज़ुबां तक न पहुंची ...बस बीच में ही कहीं कलम से होती हुयी पन्नों पर अटक गयीं... यही कुछ है इन अनकही बातों में...
Wednesday, March 22, 2017
फिर एक वादी में हम गए
थे जर्द फूल खिले हुए
चल रहे थे दोनों हम
हाथ में हाथ लिए हुए
फिर वहीं किसी एक मोड़ पे
तुम हाथ छोड़ के चल दिये
मैं खड़ी रही उस मोड़ पे
तेरे लौटने की आस में
कि नींद मेरी खुल गयी
तुम थे यहीं मेरे पास में
वो एक बुरा बस ख़्वाब था
मेरे ख़्वाबों की ताबीर तुम
मेरे पास हो तो गिला है क्या
मेरी ज़िंदगी एक ख़्वाब से
कहीं और ज़्यादा हसीन है।
नन्ही लड़की
मेरे इस
संजीदा सी औरत के
किरदार के पीछे
मेरे अंदर
एक नन्ही लड़की
रहा करती है,
जो चाहती है
तितलियों के पीछे
नंगे पाँव भागना;
समुन्दर किनारे
गीली रेत से
घरौंदे बनाना;
मुझे मालूम है
कि वो नन्हीं लड़की
सिर्फ़ इसीलिए
अभी भी ज़िंदा है
क्यूँकि वो बचपन से ही
क़ैद थी
पाबंदियों के घेरे में
अगर वो बचपन में ही
तितलियों के पीछे भागी होती
या रेत से खेली होती
तो आज यूँ
बच्चों के खेल
देख के ललकती नहीं ....
पर कोई गिला नहीं
फिर भी ज़िंदगी से
आज मेरे अंदर की नन्ही लड़की
की दो हम उम्र सहेलियाँ हैं
हाँ, मैं माँ भी हूँ
और दोस्त भी अपनी बेटियों की...
उन्हें पूरी इजाज़त है
अपना बचपन बेलौस जीने की,
और मेरे अंदर की
नन्ही लड़की को इजाज़त है
फिर से बचपन को जी लेने की
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