कल रात फिर वही बचपन की यादों वाला आँगन सपने में आया, और आँगन के छोर पर वो छोटी सी बगिया, जिसकी एक एक चीज़ अभी भी याद है; मेहंदी के दो पेड़, दो पेड़ गुढहल के लाल फूलों वाले, एक हरसिंगार जिसके नीचे रोज सुबह फूलों की चादर बिछ जाती थी, एक छोटा अमरूद और बीच बीच में मौसमी फूलों और सब्जियों की क्यारियाँ| हम तीनों अपनी अपनी क्यारियाँ बाँट लिया करते थे और सुबह उठाकर सबसे पहले जाकर देखते के किसकी क्यारी में कौन सा किल्ला फूटा|
सर्दियों की छोटी दोपहारों में इसी आँगन में धूप सेंकते हुए कोई किताब पढ़ते थे और गर्मियो की शाम से ही यहाँ पानी छिड़का कर चारपाइयों पर बिस्तर लग जाते थे, और हम देर रात तक ढेर सारे तारों के तले खुसुर-पुसुर करते हुए नींद की गोद में चले जाते थे|
इसी आँगन की नीरवता में एक दिन मन में एक कविता ने जन्म लिया था|हमारे दिन और रात उसी आँगन में शुरू और ख़त्म होते थे| कभी किसी खिलौने या टीवी , कंप्यूटर की ज़रूरत नहीं थी हमें| जब दीदी बहन से ज़्यादा पक्की सहेली थी और भइया सबसे अच्छा दोस्त| बिना खिलौनों के दुनिया भर के खेल हमने यहीं पर खेले और पढ़ाई भी यहीं पर की. यादों में वो आँगन बहुत विशालकाय था, जहाँ हम विष-अमृत और छुआ-छुआरी खेलते थे, इसी आँगन में बैठ कर हज़ारों सपने देखे थे, और पंखों को उड़ान देनी चाही थी, तब उस आँगन को छोड़ कर जाना ही अपनी नियती लगती थी, कभी सोंचा नहीं था उस वक्त की यह आँगन एक प्यारा सा सपना बन जायगा जो हमें अक्सर सुबह की नींद से जगाएगा|आज अगर वो आँगन होता तो शायद सिकुड गया होता बाकी पूरे शहर की तरह|
2 comments:
अब कहाँ आँगन का वह खुलापन;मन भी तो नहीं रहे वैसे मुक्त और सहज !
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