Thursday, August 26, 2010

.बस यूँ ही ..

अब तो ऊब हो गए बादलों की आँख मिचौली से..वैसे सब बैंगलौर के मौसम की तारीफ़ करते नहीं थकते ..हमें भी ये रूमानी सा मौसम बहुत भाता है....पर आज कल पता नहीं ये मौसम उदास सा लगने लगा है...सब कुछ सीला -सीला सा लगता है..पिछले साल पुराने घर में अपनी पुरानी दोस्तों के साथ समय पंख लगा कर उड़ जाता था..पर यहाँ नई जगह नया माहौल सबकुछ अजनबी सा लगता है ...हम वैसे भी दोस्त बनाने में बहुत कच्चे हैं.. बहुत वक्त लगाते हैं दोस्त बनाने में ... तो बस इंतज़ार है एक खिली खिली सी सुबह का खिले हुए सूरज का.. खुले हुए दिन का ..ये ऊबन तो टूटे कम से कम ....

...और मन के मिजाज़ से मेल खाती एक गुलज़ार की नज़्म...

सांस लेना भी कैसी आदत है
जिए जाना भी क्या रवायत है
कोई आहट नहीं बदन में कहीं
कोई साया नहीं है आँखों में
पाँव बेहिस है, चलते जाते हैं
इक सफ़र है जो बहता रहता है
कितने बरसों से कितनी सदियों से
जिए जाते हैं, जिए जाते हैं

आदतें भी अजीब होती हैं.

Tuesday, August 10, 2010

बशीर बद्र की एक ग़ज़ल


आज यूं ही किताबो की अलमारी साफ़ करते हुये किताबे उलट पलट रहे थे कि बशीर बद्र की इस खूबसूरत गज़ल पर नज़र अटक गई. सोंचा आप सब के साथ बांट ले.

वो शाख है न फूल, अगर तितलियां न हों
वो घर भी कोई घर है जहां बच्चियां न हों

पलकों से आंसुओं की महक आनी चाहिये
खाली है आसमान अगर बदलियाँ न हों

दुश्मन को भी खुदा कभी ऐसा मकां न दे
ताज़ा हवा की जिसमें कहीं खिड़कियाँ न हों

मैं पूछता हूँ मेरी गली में वो आए क्यों
जिस डाकिये के पास तेरी चिट्ठियां न हों

--बशीर बद्र

Saturday, August 07, 2010

बारिश



फ़लक पर बादल घिरे हैं मौसम भी भीना-भीना है,
बारिश तो होनी ही है ये अगस्त का महीना है।