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पहला भाग
दूसरा भाग
शादी के बाद हम यू एस चले गये और प्रियंका से बातों का सिलसिला धीरे-धीरे कम होता गया। मैं भी अपने घर संसार में व्यस्त हो गयी। एक बिटिया मेरी गोद में आ गई और वो भी एक बेटे की मां बन चुकी थी। उसने अपने बेटे का नाम प्रियांश रखा था। फोन पर ही उसने बताया था," सोनिया मैंने हमेशा से सोंचा था कि मेरा बेटा होगा तो उसका नाम प्रियांश रखेंगे। हम दोनों का नाम ही इस में समा जाता है। प्रियंका और अंश का बेटा 'प्रियांश'।" उसकी आवाज़ एक बार फिर पहले जैसी चहकी हुई थी। मां होने के गौरव से वो भरी-पूरी सी महसूस हो रही थी। मैंने ईश्वर को धन्यवाद दिया और दुआ की कि मेरी सखी यूं ही हमेशा खुश रहे।
पर सब-कुछ ठीक समझना शायद हमारा भ्रम था। दो साल के बाद जब मैं इंडिया आयी तो उसे फोन किया। पर फोन किसी अजनबी लडकी ने उठाया। प्रियंका के बारे में पूंछने पर वो बोली कि यहां कोई प्रियंका नहीं रहती। हमें बहुत ताज्जुब हुआ। कई बार फोन किया पर हमेशा वही जवाब। भाई से बात कर रहे थे तो उसे जाने किस पुरानी डायरी में प्रियंका की मम्मी का नम्बर मिल गया। मैंने उस नम्बर पर फोन किया तो उसकी मम्मी से बात हुई। बोलीं, "प्रियंका तो अब अपने बेटे के साथ यहीं रहती है। हमें तो धोका हो गया बेटा। प्रियंका की तो ज़िन्दगी बर्बाद हो गई। वो लोग पैसे के लालची निकले। न कोई घर था उनका, दुकान भी गिरवी थी। और लडका था शराबी एय्याश। हमारी प्रियंका को घर से निकाल दिया।" ये सब अचानक से सुनकर मेरेतो पैरों तले से जैसे जमीन खिसक गई। प्रियंका ने तो कभी मुझे गुमान भी नहीं होने दिया कि वो किसी ऎसे दौर से गुज़र रही है। फोन पर अभी भी उसकी मम्मी अनर्गल प्रलाप जारी था। ".....तुम कैसी हो सोनिया! तुम्हारा पति तुम्हारा ध्यान तो रखता है। ससुराल में सब कैसे हैं? तुम्हारे एक बिटिया है न?" उनके सवालों के जवाब में ये कहना कि मेरे पति अच्छे हैं। मेरा ख्याल रखते हैं। ससुराल भी अच्छी है; मुझे अंदर किसी गहरे दर्द से भेदे दे रहा था। मेरी सबसे प्यारी सखी किस दर्द से गुजर रही है और मुझे कुछ पता भी नहीं। हमने कहा, "आंटी प्रिया से बात कर सकते हैं?" तो आंटी बोलीं, "वो तो जाब करती है बेटा। उसका एकनामिक्स में एम ए और कम्प्यूटर कोर्स काम आया। उसी की वजह से उसे एक एकाउंटिंग फर्म में नौकरी मिल गई है। उसका मोबाइल नम्बर देते हैं। बात कर लो।"
उसका नम्बर हांथ में लिये कितनी देर हम यूं ही बैठे रह गये। हिम्मत ही नहीं हो रही थी उससे बात करने की। उसके लिये की गई भविष्यवाणी सच हो गई थी और हम अब भी उस पर विश्वास नही कर पा रहे थे। शाम को उसका नम्बर मिलाया तो उसने ही फोन उठाया। मेरी आवाज़ सुनकर उसके आंसुओ का बांध टूट गया, "बोली तुम्हें सब पता चल गया। सोंचा था कि तुम्हें अपने दु:ख से दु:खी नहीं करेंगे। मेरे साथ ऎसा क्यों हुआ सोनिया? मैने तो पूरी शिद्दत से अंश को प्यार किया था। उसकी हर चीज़ को अपना माना था। उसकी दुकान नहीं चलती थी तो मैंने कम पैसे में ही गुज़ारा करना सीख लिया था। मेरे पापा ने उसे दस लाख रुपये नया बिज़नेस डालने के लिये दिये। पर उसने सब पैसा शेयर्स और शराब में उडा दिया। उसने हमें कभी चाहा ही नही। वो तो किसी और से शादी करना चाहता था। पर दहेज के लिये उसे मुझ से शादी करनी पडी। शुरु में उसकी मम्मी ने सब ढंकने की कोशिश की पर बाद में धीरे-धीरे सब खुलता गया। जबतक मेरे पापा पैसे देते रहे मेरी सास का व्यवहार थोडा ठीक था पर मेरे पापा भी कब तक पैसे देते। उसके बाद तो उन लोगों ने हमें खाने तक के लिये तरसा दिया। प्रैग्नैन्सी में लोगों को नई-नई चीज़े खाने की क्रेविंग होती है। पर मुझे तो पेट भर खाना भी नसीब नहीं था। मेरी सास कहतीं कि दिन में अकेले अपने लिये खाना बनाने की क्या जरूरत है। रात का बचा हुआ खा लो। और रात में सिर्फ नपातुला खाना बनाने की इजाजत थी। पूरा दिन मैं भूखी रहती। प्रियांश के होने के बाद भी अंश को अपने बेटे की कोई खुशी नहीं हुई। बल्कि एक बार तो कह दिया कि प्रियांश नाम रख देने से क्या ये मेरा अंश हो जायेगा। प्रियांश भी मेरी सी किस्मत ले कर आया था। उसकी मां को कभी इतना खाने को नहीं मिला कि उसे दूध होता और बाप ने कभी एक दूध का डिब्बा ला कर नहीं दिया। डिलीवरी के वक्त मम्मी- पापा आये तो जो भी जरूरत का सामान था लाकर रख गये। दो महीने होते होते सब सामान खत्म हो गया। जब अंश से दूध का डिब्बा लाने को कहा तो उसने शराब के नशे में चीखना चिल्लाना शुरु कर दिया। तुमने तो देखा था वो अंधेरा घर। रात को ग्यारह बजे वहां उसकी चीखें और मेरे आंसू सुनने वाला कौन था। उस दिन शायद मेरी किस्मत से दुकान में काम करने वाला एक छोटा सा लडका बाहर गैलरी में सोया हुआ था। आवाज़े सुनकर वो अंदर आ गया। और छुपकर सब देखने लगा। तबतक अंश ने मुझे मारना शुरु कर दिया था। कहते हुये भी शर्म आती है कि शराब के नशे में उसने पहले भी कई बार मुझ पर हांथ उठाया था। इसी बीच प्रियांश ने भी भूख से रोना शुरु कर दिया था। मम्मी जी ने आकर खीचकर अंश को अंदर कमरे में ले जाकर डाल दिया। और खुद भी सोने चली गईं। मुझ पर और प्रियांश पर किसी को कोई तरस नहीं आया। पर उस दिन शायद वो छोटा सा लडका मेरे लिये फरिश्ता बन कर आया था। उसने मुझे अंदर से लाकर पानी पिलाया। सहारा देकर वहीं पास पडी चारपाई पर लिटाया। प्रियांश को उठाकर मेरे पास लिटाया। मेरे आंसू पोंछते हुये उसके भी आंसू बह रहे थे। आधी रात में पता नहीं कौन सी जगह से वो थोडा सा दूध लेकर आया। खुद ही बोतल में डालकर उसने प्रियांश को अपनी गोद में डालकर दूध पिलाया।
मेरी सारी शक्ति उस दिन समाप्त हो चुकी थी। ऎसे ही बाहर ओस में चारपाई पर पडे हुये सुबह का धुधंलका भी आ चुका था। पर मेरी ज़िन्दगी में शायद कोई सुबह नहीं थी। फिर भी जीना तो था ही, अपने लिये न सही तो प्रियांश के लीये। यही सोंचकर मैंने एक पेपर पर छोटू को अपने घर का नम्बर देकर कहा कि वो पीसीओ से घर फोन करके कहे को वो लोग प्रियांश के लिये दूध दे जायें। खुद भूखा रहा जा सकता है, पर जिसे आपने नौ महीने पेट में रखकर जन्म दिया हो उसे भूखा देखना बर्दाश्त नहीं हुआ।
छोटू ने जब घर फोन किया तो भैया ने फोन उठाया। उन्होंने सारी बातें छोटू से पूंछ ली। उनका जवान खून अपनी बहन की ये दुर्दशा बर्दाश्त नहीं कर सका और वो तुरंत गाडी लेकर पापा के साथ आये। जब वो लोग घर पहुंचे तो अंश का नशा उतरा नही था। मैंने कभी सोंचा भी नहीं था कि मेरे जीवन की ये परिणति होगी। पापा और भाई मुझे प्रियांश के साथ घर ले आये। जाते-जाते अंश ने कह दिया कि अब कभी वापस लौट कर मत आना।
घर जाकर एक हफ्ता मैं और प्रियांश दोनों बीमार पडे रहे। कुछ सोंचने समझने की भी ताकत नहीं रही थी। इधर मम्मी भी समझा रहीं थीं कि वो तुम्हारा घर है, तुम्हारा पति है, तुम्हारे बच्चे का बाप है। तुम्हें ज़िन्दगी तो उसी के साथ काटनी है। कुछ दिनों में वो सुधर जायेगा। मैं कुछ भी निर्णय लेने में असमर्थ थी। कि एक दिन डाक से एक पत्र आया मेरे नाम। पता नहीं क्यों कुछ गलत का अंदेशा हुआ। पत्र खोलकर पढा तो वो डायवोर्स के पेपर्स थे। मेरे पैरों तले से जमीन खिसक गई। ये तो मैंने कभी नहीं चाहा था। घर में भैया और पापा तो चुप थे पर मम्मी बोले जा रहीं थी कि ऎसे कैसे डाइवोर्स दे सकता है। मजाक है क्या। और बस ऎसे ही मेरी जिन्दगी एक मजाक बन गई। दो साल से कोर्ट में केस चल रहा है। ये तो अच्छा हुअ कि मेरी पढाई काम आई। दिनभर जाब पर वक्त कट जाता है। पर शाम को घर जाकर वक्त काटे नहीं कटता। प्रियांश के साथ वक्त गुज़ारने की कोशिश करते हैं पर शाम को भैया को अपने बच्चों के साथ खॆलता देखता हैं तो उसे भी अपने पापा चाहिये होते हैं। ढाई साल का बच्चा जब अपने मामा को पापा बुलाता है तो ऊसकी नानी उसे समझते हुये नहीं थकतीं कि वो तेरे पापा नहीं हैं वो तेरे मामा हैं। मुझे पता नहीं मेरी ज़िन्दगी का क्या होगा।" एक ही सांस में वो अपने पिछले कई सालों के दर्द को बयान कर गई। हम उससे बस यही कह पाये, "अच्छा हुआ तुम उसे छोड कर आ गई। अब अपनी ज़िन्दगी नये सिरे से शुरु करना।" इस पर वो बोली
" तुम तो विदेश में रहती हो तुम्हें यहां का सिस्टम नहीं पता है। पता नहीं कब मेरे केस का फैसला होगा। हमने तो अपनी किस्मत को स्वीकार कर लिया था। जब डाइवोर्स के पेपर आये थे तब मैं अंश के पास जाकर बहुत रोई थी कि मुझे अपने घर में पडा रहने दे। मैं उससे कभी कुछ नहीं मांगूगी। पर वो नहीं माना बोला उसे मेरे साथ रहना ही नहीं है। तुम्हें नहीं पता शादी के बाद वापस अपने घर में रहना भी पराया लगता है और तलाकशुदा औरत सभी को अवेलेबिल दिखती है।"
मेरे पास उसकी बात का कोई जवाब नहीं था। कभी नहीं सोंचा था कि हमारे बीच ऎसी बातें होंगी। बात का रुख मोडते हुये उसने कहा, "और तुम अपनी बताओ? तुम्हारे पति तो बहुत अच्छे हैं न। बताओ न अच्छे लोग कैसे होते हैं। कभी देखा-सुना नहीं । अच्छे लोग शायद कहानियों में या फिल्न्मों में ही होते हैं। अच्छा! तुम्हारे पति बेटी को प्यार करते हैं न। शायद अगर मेरे भी बेटी होती तो मेरी किस्मत अच्छी होती। मैंने जितने भी घरों में पहले बेटी का जन्म देखा है उनके घर में हमेशा अच्छी किस्मत देखी है। अंश ने तो कभी प्रियांश को गोद में भी नहीं उठाया। उसका तो नाम ही जैसे उसके लिये अभिशाप हो गया है।" उसकी बातों को बस हां-हूं में और इधर-उधर की बातों में टालते गये। चाह कर भी उसे नहीं बता पाये कि मेरे पति की तो जान ही मेरी बिटिया में बसती है। और वो मेरा पल पल पर ख्याल करते हैं अच्छे लोग सिर्फ कहानियों या फिल्मों में नहीं होते। इसी दुनिया के होते हैं। बस अपनी अपनी किस्मत का फर्क है। मुझे तो अभी तक बुरे लोग ही कहानियों या फिल्मों की दुनिया के लगते थे। पर मैं कुछ भी नहीं कह पायी।
यू एस वापस आने के बाद कभी-कभी प्रियंका से बात होती रही। वो अक्सर मुझसे कहती मुझे अपने पास बुला लो। पर मैं क्या कर सकती थी उसके लिये सिर्फ दुआ करने के सिवा।
इतनी देर तक यही सब सोंचते हुये पता भी नहीं चला कि शाम हो गई थी। मेरी बिटिया शोना कब आकर मेरे पास सो गई थी पता ही नहीं चला। उफ ये इस वक्त सो गई, अब आधी रात को उठकर जागरण करेगी। जेटलाग की नींद होती ही ऎसी है। उसे उठाते हुये मन में ख्याल आया कि अब तो प्रियांश भी पांच साल का हो गया होगा। शोना को ऎसे ही सोने देकर मैं टेरेस पर आ गयी और फिर से प्रियंका को फोन मिलाया। इस बार वही चिर-परिचित आवाज़ थी, " हाय सोनिया! कैसी हो? कब आईं?"
"बस दो दिन हुये। तुम कैसी हो केस का क्या हुआ?"
"केस का क्या होना है? शायद कल फैसला हो जाय। पर इस बार फिर मेरी किस्मत मेरे साथ खेल रही है।
"क्या हुआ? बताओ तो सही।"
"प्रियांश पांच साल का हो गया है। पांच साल के बाद मेल चाइल्ड की कस्टडी पिता के पास रहती है।मैं चाहूं तो उसे अपने पास रख सकती हूं। पर मेरी मम्मी मेरे पीछे पडी हैं कि प्रियांश को अंश के पास भेज दो उसे तुम्हें कोई मुआवज़ा देने की भी जरूरत नहीं है। अंश भी सिर्फ इसलिये इस बात पर राज़ी हो गया है कि उसे कोई मुआवज़ा नहीं देना पडेगा। ये लोग मेरी दूसरी शादी करवाना चाहते हैं। और पांच साल के बच्चे के साथ शादी होना मुश्किल है। इसीलिये ये लोग उसे छोडने को कह रहे हैं। पर उसके बाद मैं प्रियांश से कभी नहीं मिल पाउंगी। ये उन लोगों की शर्त है। सोनिया! मुझे कुछ समझ नहीं आता क्या करूं? प्रियांश तो अंश को जानता तक नहीं है। अपने नन्हें-नन्हे हांथो से सदा मेरे आंसू पोंछता रहता है। उसके साथ मेरा खून का ही नहीं दर्द का भी रिश्ता है। और दर्द के रिश्ते ज्यादा अनमोल होते हैं ये तो मैंने अपनी ज़िन्दगी के अनुभव से जाना है। शादी मैं भी करना चाहती हूं। ऊब गई हूं इस पराये से घर में अपनों के बीच रहते रहते। ये लोग अपनी खुशियां भी मेरे दु:ख को देखकर खुल कर नहीं मना पाते। मैं एक बेटी न होकर सजा बन गई हूं। क्या करूं तुम्हीं बताओ?" मेरे पास उसके सवालों का हमेशा की तरह कोई जवाब नहीं था। बस उसे समझा दिया, "कि तुम सोंच-समझ कर कोई फैसला करना। ये तुम्हारी ज़िन्दगी है।"
"मुझे चाहिये ही नहीं ऎसी ज़िन्दगी।"
"उदास मत हो! प्रिया कोई न कोई तुम्हें भी ज़रूर मिलेगा जो तुम्हारा दामन भी खुशियों से भर देगा।
"मुझॆ ज़िन्दगी से कोई उम्मीद नहीं। बस आदमी नाम का ऎसा कोई सहारा मिल जाय जो मुझे मेरे प्रियांश के साथ स्वीकार कर ले।"
"ऎसा होगा प्रिया। तुम उम्मीद मत छोडो"
"पर अभी तो पहले मुझे अपने प्रियांश के बारे में कोई फैसला लेना है। कोर्ट ने कल तक का वक्त दिया है।"
"....."
"मैं क्या करूं सोनिया?"
"मुझे भी कुछ समझ नहीं आ रहा है। बस इतना कह सकती हूं कि मेरी सारी दुआयें तुम्हारे साथ हैं।"
ये कह कर हमने फोन रख दिया। उसके बाद भाई की शादी की भागदौड में वक्त ही नहीं मिला बात करने का। इक हफ्ते बाद वापस यू एस आ गये। रोज़ ही प्रिया की याद आती। बात करने का मन भी करता पर फोन मिलाने की हिम्मत नहीं होती। पता नहीं प्रियंका ने क्या फैसला लिया हो। या ज़िन्दगी ने उसका क्या फैसला किया हो। पता नहीं प्रियांश उसके पास था या फिर उसने उसे भी हार दिया था। क्या पता उसे कोई ऎसा मिल गया हो जिसने उसे प्रियांश के साथ अपना लिया हो। काश ऎसा हो जाता। यूं ही कशमकश उधेड्बुन में तीन महीने बीत गये।
आज हिम्मत करके मैंने उसके मोबाइल का नम्बर डायल कर ही दिया। उधर से आवाज़ आई, " दिस टेलीफोन नम्बर डज़ नाट एग्ज़िस्ट।"
शायद मैंने फोन करने में देर कर दी थी। पिछले कई सालों से उसके मोबाइल पर ही बात हो रही थी। उसके घर का या कोई और नंबर हमने सेव नहीं किया था। सोंचा नहीं था कि कभी ऎसा होगा कि हम चाहते हुये भी उससे बात नहीं कर पायें गे। बस अब तो यही उम्मीद है कि वो जहां भी हो खुश हो। मेरी सारी दुआयें उस लडकी के नाम हैं जिसने कभी किसी का बुरा नहीं किया। बस सभी से प्यार किया, पर जिसे कभी प्यार नहीं मिला।