Monday, December 14, 2009

चेहरे पे चेहरा

तेरे चहरे में
हर रोज़ नुमायां होता है
एक नया चेहरा;
जिसे मैं नहीं जानती हूं,
न पहचानती हूं
जिससे मिलकर मुझे
कोई खुशी नहीं होती।
बस अजनबी पन का एक अहसास
भर देता है मुझे अंतर तक।
यूं तो मैं करती हूं
तुम्हें बेइंतहा प्यार
पर अब मुझे डर लगने लगा है
अपनी इस मुहब्बत से!
कि कहीं 'इस सब' के चलते
मेरी अपनी खुदी की ही
मौत न हो जाय;
मान कर तुझे अपना मजाज़ी खुदा
मेरा अपना खुद ही
न मिट जाय।

3 comments:

राकेश कौशिक said...

समय को देखते हुए डर सही और जायज है - समसामयिक प्रस्तुति

manu said...

bahut achchhaa likhaa hai ...

Arpita said...

ज़िन्दगी जिससे बेइन्तिहा प्यार करती है अक्सर वही हमें जीने की मोहलत देने से गुरेज़ करें ये एह्सास समझना आसान नही!‘