Friday, December 18, 2009

खामोश मुलाकात

लफ़्ज फूलों से झरे
तेरे लबों से;
और मैंने चुन लिया उन्हें,
अपनी हथेलियों के दोनों में.
तहा के रख दिया,
वक्त की पैरहन के साथ.
ताकि जब मन उदास हो,
और तुम बेतरह याद आओ;
तो, फिर से जी सकूं-
उन बेशकीमती लम्हों को,
फिर से सुन सकूं-
तेरी आवाज़ के नग्मों को.
छू सकूं तेरे
छुई-मुई से लव्ज़ों को;
दोहरा सकूं आज की इस
छोटी सी खामोश मुलाकात को,
जब तुमने कहा तो कुछ नहीं था,
पर मेरे मन ने सुन लिया था,
तेरी अनकही बातों को!

9 comments:

मनोज कुमार said...

बहुत ही भावपूर्ण रचना।

Vivek Vaishnav said...

बहुत खूब.........

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत बढ़िया रचना है बधाई।

Udan Tashtari said...

सुन्दर भावपूर्ण अभिव्यक्ति!

Kapil Sharma said...

ताकि जब मन उदास हो,


और तुम बेतरह याद आओ;

तो, फिर से जी सकूं-

उन बेशकीमती लम्हों को,

फिर से सुन सकूं-

तेरी आवाज़ के नग्मों को.




बहुत प्यारी कृति हैं.. .

Dr. Shreesh K. Pathak said...

मन को भा गई आपकी ये रचना..वाकई..

सागर said...

आप अभी भी इसी दुनिया में विचार रही है... शाम तक इस महफ़िल मैं भी आ जाऊंगा;..

Anonymous said...

जब तुमने कहा तो कुछ नहीं था,
पर मेरे मन ने सुन लिया था,
तेरी अनकही बातों को!
अति सुंदर, मन मोहक.

gyaneshwaari singh said...

bahut sunder kavita