Saturday, June 04, 2005

वक्त का बजरा

वक्त का बजरा;
क्यूं बहता रहता है बेहिसाब ,
बेमक्सद सा।
लहरों की आजमाइश में ,
डूबता- उतराता
बहता रह्ता है ,
बस चुप-चुप सा।
दिन आते हैं ....
गुजर जाते हैं.....
कुछ मानूस,
कुछ अजनबी
जैसे किसी अर्गनी पर
टंग कर उतर जाते हैं।
बस वक्त खङा रहता है
ठिठका सा!
ख्वाबों की
सपनीली सतहों पर
जहां सब कुछ
मुट्ठी में बन्द
रेत सा लगता है
मन क्यूं पहुंच जाता है
और तकता रहता है
बेबस सा!
--सारिका

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