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Saturday, September 10, 2005

बारिश में

याद बहुत आई
इस बार भी
घर की बारिश में
मन को मनाया तो बहुत
पर भर आईं
आखिर अंखियां बारिश में ।
सखियां, झूले;
कागज़ की नावें,
एक साथ ही जैसे
चले आये यादों में,
नहीं रुक पाया बस
भर आया मन
इस बार भी बारिश में।
मेंहदी भी नहीं रचती
हथेलियों में यहां जैसे,
चूङियां भी कलाइयों में,
सजती हैं कहां वैसे
बस बादल ही
बरसते हैं हरबार
यहां बारिश में।
क्या कहें?
होता है यहां
हर साल यही बारिश में।

4 comments:

  1. Thanks Sarika
    main aapka dhanyabaad karta hoon ki aap meri kuti (My Blog) main aayi.
    Aapki kuchh kavitayen maine abhi abhi padi ....mujhe kafi achhi lagi....aasha karta hoon ki bhavishya main aapki kavitaon ke amratua ka paan karta rahoonga....
    Roopak

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  2. मुझे लौटा दो कागज की किस्ती ,बारिश का पानी .यह तो बढिया कविता लिखी आपने.याद नहीं आ रही पूरी कविता -, इमली की कच्ची फलियों से भरी हुई फ्राकों के दिन, .इसके बाद इसी तरह फिर बचपन/घर की बारिस की याद की गयी थी.बधाई.

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  3. आ अब लौट चलें

    जिसकी अवाज़ रुला दे मुझे वो साज़ न दो
    अवाज़ न दो

    ऐसे गीतों का संग्रेह है?

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