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Wednesday, December 11, 2013

नज़्म

कुछ आड़ी तिरछी  लकीरें
जो मेरी उँगलियों की राह होते हुए
पन्नों पर खिंच जाया करती थीं
और शक्ल देतीं थी किसी नज़्म को
वो होती तो मेरा एक हिस्सा ही थीं
जो मेरे होने को
एक और मानी सा देतीं थीं ......
....पर बहुत दिन हुए
ये शब्द अब उमड़ते ही नहीं ....
न लेते हैं कोई शक्ल नज़मों की
बस उदास, हैरान ठहरे रहते हैं
मन के अंदर ही
जैसे मुंतज़िर हों किसी तूफ़ान के…

कभी कभी कुछ तूफ़ान जरूरी होते हैं .