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Friday, November 11, 2005

एक छोटी सी प्रेम कहानी


प्रतीक्षा के पल
होते तो हैं मुश्किल; पर
इन्हीं में छुपी होती है-
आस जीवन की!

समर्पण करूं
खुद को तुम पर;
इससे बढकर और क्या चाहूं!
तुम मेरे बन जाओ तो;
और मैं 'उससे' क्या मांगू?

मिलन के ये दो पल प्रिये!
इंतज़ार था सदी भर का।
खुद को खोकर तुझमें
बनी हूं आज मैं अभिसारिका!


दो मन मिले,
दो तन मिले,
हम बने जीवन रथ के दो पहिये।
'मैं' को खोकर 'हम' ने पाया,
सुख तृप्ति का
परिणति यही तो होनी थी

3 comments:

  1. "mai" ko kho kar hum ne paya ...prem ki bas yehi paribhasa mujhe samjh aayi hai.

    :)

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  2. sarika ji aapka blog dekha maine. achcha hai ji

    kripaya mere website www.srijangatha.com ko bhi link de dewen. aapki site ka kya hua ji, Haan, kuch article mere website ke liye bhej den.
    jayprakash manas

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  3. अच्छा लिखा है....

    अपनी एक पुरानी कविता के चार पंतियाँ याद आयीं...

    हम कर्म से हैं भाग्या से हैं बंधे हुऐ
    तुम रितुराज हुऐ और हुई मैं सारिका
    स्नेह वर्षा में तुम्ही की भीग कर
    प्रियसी हुई और हुई मैं अभिसारिका

    रिपुदमन

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