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Monday, September 19, 2005

दो मुक्तक

रोज वही सूरज का ढलना,
नैनों में दीपक का जलना,
सदियों सी इक शाम बिताकर;
रात गये फिर उनसे मिलना।

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राह देखते तेरी,
खुद राह हो गये तेरी,
इस राह की तकदीर में;
कभी तो हो अगवानी तेरी।

3 comments:

  1. ये मुक्तक तो बांध लेते हैं।
    रोज वही सूरज का ढलना,
    नैनों में दीपक का जलना,
    सदियों सी इक शाम बिताकर;
    रात गये फिर उनसे मिलना।
    वाह।

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  2. सच ! बहुत सुन्दर
    प्रत्यक्षा

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  3. आपका पहला वाला मुक्तक तो वाकई अद्भुत है। वाह...।

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