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Tuesday, August 23, 2005

एक नज़्म


कई दिन से है कलम बंद
आज कुछ तो लिखना है।
अक्षरों की राह होते हुये
आज कुछ तो बहकना है।
चलो ढूंढे मन की सिलवटों में...
कहीं तो छिपी बैठी होगी
कोई कविता-
या कोई अधूरी सी नज़्म;
लिख दें उसे फिर से
मोतियों सी लिखावट में;
दें उसे कोई नये मायने।
नहीं तो चलो-
खारे पानी में ही डुबो दें
आज कलम
रच दें दर्द का कोई नया नग्मा;
ज़िन्दगी की किताब में
कुछ नये सफे जोङें।
दें मन के गुबार को
इक नई भाषा;
तोङ दें इस पसरे हुये मौन को
कई दिन से है
कलम बंद
आज कुछ तो लिख दें........